SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 841
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८३ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८७.३ निर्जरायाः कारणनिरूपणम् प्रायश्चित्तादिषडूविक्षश्च तपः विपावश्च -शुभाशुभकर्मफळभोगरूपो रसोऽनु.. भावात्मको निर्जराहेतुः देशतः कर्मक्षयलक्षणाया निर्जरायाः कारणं वर्तते । एवं-कृतकर्मफलभोगरूपविपाकेन चोपर्युक्तस्वरूपा निर्जरा भवति अनशन मायश्चित्तादितः चिरसश्चितकर्मक्षयरूपां निर्जरां करोति शुभाशुभकृतय.मफल मोगरूपः सुखदुःखानुभवात्मको विपाकश्च तथाविध कर्मक्षयरूपां निर्जरां जरयति । अतएव-अनशनमायश्चिनादिकं द्वादशविधं तपः कर्मफलमोगरूपों विपाकश्च कर्भ क्षथलक्षणां निर्जरां प्रतिहेतु भवति । उत्तश्चोराराध्ययले ३० अध्ययने ६ गाथायास्-'एवं तु संजरला विपादकम्मनिरासवे । भवकोडी. संचियं कम्म तसा निजरिस्सई' ॥१॥ एवन्तु संरतस्यापि पापकर्मनिरास्त्रवे। भवकोटी सश्चितं कर्म तपसा निर्जीर्य ते ॥१॥ इति, उक्तञ्च व्याख्याप्रज्ञप्तौ-.. भेद होता है, जैसे ज्ञानावरण कर्म के बन्ध के कारण प्रदोष और निहनव आदि हैं, जब की असाना वेदनीय के पंध के कारण दुःखशोक आदि हैं ___ शरीर एवं इन्द्रियों को लपाना रूप रूप दो प्रकार का है-अनशन आदि छह बाह्य रूप है और प्रायश्चित्त आदि छह आश्चन्तर तप हैं। शुभाशुभ कर्मों का फल भोगना विपाक कहलाता है। इन दोनों कारणों से निर्जरा शेती है। इस प्रकार कृत कर्मों के फल भोग रूप विपाक से फार्म क्षय रूप लिजरा होनी है। अनशन एवं प्रायश्चित्त आदि पारह प्रकार के रूप से भी चिरसंचित कर्मों की निर्जरा होती है उत्तराध्ययनसून के अध्ययन ३०, गाथा ६ में कहा है 'इस प्रकार संयमशील पुरुष जब पाप कर्मों के आस्रव का नियोध कर देता है तो कोटी कोटी भयों लंचित कर्मों का तपस्या के द्वारा क्षय कर देता है ॥१॥ છ બાહાતપ છે અને પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ છ આભ્યન્તર તપ છે. શુભાશુભ કર્મોનુ ફળ ભેગવવું વિપાક કહેવાય છે. આ બંને કારણથી નિર્જરા થાય છે આવી રીતે કૃત કર્મોના ફળ રૂપ વિપાકથીકર્મક્ષય રૂપ નિર્જરા થાય છે: અનશન અને પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ બાર પ્રકારના તપથી પણ ચિર સંચિત કર્મોની નિર્જરા થાય છે. ઉત્તરાધ્યાન સૂત્રના અધ્યયન ૩૦, ગાથા ૬ માં કહ્યું છે આ રીતે સંયમશીલ. પુરૂષ જ્યારે પાપકર્મોના આસ્રવને નિરોધ કરી દે છે તે કેટિ–કેટિ ભરે માં સંચિત કર્મોને તપસ્યા દ્વારા ક્ષય કરી દે છે 1 ૧
SR No.010523
Book TitleTattvartha Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages895
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy