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________________ t ? तत्त्वार्थस क्षय समकालमेव - औदारिकशरीर निमुक्तस्याऽस्य मनुष्यजन्मनः प्रहाणं - समु छेदो rate मध्यादर्शभावाच्चोत्तर जन्मनोऽप्रादुर्भाव इत्येवं पूर्वजन्मन उच्छेद उचरजन्म प्रादुर्भाविथ कृत्स्न कर्मक्षयलक्षणो मोक्षः ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणस्याऽऽत्मनः स्व-स्वरूपावस्थानं भवतीति भावः । तत्राऽष्टसु ज्ञानावरणदर्शनावरण- मोहनीय वेदनीयाऽऽयुर्नाम - गोत्रान्तरायेषु मूलप्रकृतिकर्मसृ पञ्चज्ञानावरणानि सतिज्ञानावरणादि भेदात् नवदर्शनावरणीयानि चक्षुर्दर्शनावरणादिभेदात् अष्टाविंशति मोहनीयानि कर्माणि दर्शर-सोहनीय, चारित्रमोहनीयादि भेदात्, द्वे वेदनीयकर्मणी - सदस द्वेदनीय भेदात् । चत्वारि - आयुः कर्माणि, नरकक्षय हो जाता है । इस प्रकार लय कर्मों का क्षय होते ही औदारिक शरीर से मुक्त हुए इस मनुष्य-जन्म का अन्त होता है और मिथ्यादर्शनादि का जमाव होने से अगला जन्म होता नहीं है। इस प्रकार 'पूर्वजन्म का विच्छेद हो जाना और उत्तर जन्म का प्रादुर्भाव होना मोक्ष है और सम्पूर्ण फर्मों का क्षय होना उसका लक्षण है। तात्पर्य यह है कि ज्ञान-दर्शन उपयोग रूप आत्मा का अपने ही स्वरूप में अव'स्थान हो जाना ही मोक्ष कहलाता है । wphy कर्मको आठ मूल प्रकृतियां है-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, 'वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । इनमें से मतिज्ञानावरण 'आदि के भेद से ज्ञानावरण के पांच भेद है, क्षुदर्शनावरण आदि के भेद से दर्शनावरण के नौ भेद है, दर्शनमोहनीय चारित्रमोहनीय आदि के भेद से मोहनीय कर्म के अड्डाईस भेद हैं, माता-असाता के भेद ले वेदनीय कर्म के दो भेद हैं, नरकायु तिर्यं चायु आदि के भेद से -સમરત 'કર્માના ફાય થતાં જ ઔદારિક શરીરથી મુકત થયેલા આ મનુષ્ય જન્મના અન્ત આવે છે અને મિથ્યાદનાદિને અભાવ થવાથી પુનર્જન્મ થતા ‘નથી આમ પૂર્વ જન્મના વિચ્છેદ થઈ જવા અને ઉત્તરર્જન્મના પ્રાદુર્ભાવ ન ,थेवे। भिक्षा'छे'भने-'सभ्यूयु" भेनि क्षय थे। तेनुं छे. तात्यय के ज्ञान दृर्शनः उपयोग ३५ मत्सानु' 'पोतानी” स्वईयमी अवस्थान ४. मोक्ष, हेवा छे - " * Pe , A मनी आठ भूप्रति $1145 1: हे ज्ञानावरण, दर्शनविरथ, मोहनीय वेहनीय સ્માયુ, નામ, ગેાત્ર અને અન્તરાય આમાંથી મતિજ્ઞાનાવરણું આદિના ભેદથી ज्ञानावरछना, पाथ लेड छे," अक्षुदर्शनावर महिनाले यी हर्शनावस्थ A માનિ દનાવરણના નવ ભેદ છે, દશ નમાહનીય ચારિત્રમેહનીય આદિના " } ભેદથી મેહનીય કેમના મયાવીસ ભેદ છે, સાતા અસાતાના ભેદથી. વેદનીય 11- 16 25
SR No.010523
Book TitleTattvartha Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages895
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size73 MB
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