SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 547
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.६ .४९ प्रतिज्ञानस्य चातुविध्यस् ७७३ विषयाणां यदव्यतम्-अस्फुटस्-आलोचनमानभवधारणं भवति-सोऽवाह उच्यते । ततश्च-सामान्यतोऽवग्रहेणाऽवग्रहीतस्य तस्यैव विषयस्य निश्चयविशेष जिज्ञासा विशेषा काङ्क्षा-ईशा-उच्यते, अह-तर्क:-परीक्षा-विचारणा-ईहाजिज्ञासा-इत्येते शब्दाः समानार्थका अबसेयाः । ततथा-ऽवग्रहेण गृहीतस्य ईहया गृहीतस्य तस्यैव विषयस्य सम्यगासल्यग्वे' त्येवं गुण दोष विचारणाऽवाय उच्यते। ततथाऽवायेनाऽवेतस्य तस्यैव विषयल्य या पतिपत्तिः मतिस्थिरता साधारणापपदिश्यते । तथा च-प्रथमं चक्षुरिन्द्रियस्य शुक्लादिरूपे विषये सन्निपाते सति चक्षुषा शुक्लं रूप मित्येवं ग्रहणमवग्रहः । ततश्चादग्रहगृहीते शुक्ले रूपे विशेषाकांक्षणमीहः । यथा-शुबलमिदंकि बलाकारूपं किं वा-पताकारूपं स्यात् इत्येवं जिज्ञासारूपा-ईहा भवति । ततश्च-विशेष निर्धानात् याथात्मनिश्चयोऽवायः उच्यते । यथा-उत्पलननिपतन पक्षविस्फुरण विक्षेपादिभि बलाकैवेयं, नतु-पताका अव्यक्त -अपरिस्फुट बोध-अंश होता है वह धंजनावग्रह कहलाता है और व्यंजनावग्रह के पश्चात् आवान्तर सामान्य जानने वाला ज्ञान अर्थावग्रह कहा जाता है। सामान्य रूप रखे जाने गरी उसी विषय में विशेष को जानने की जो आकांक्षा होती है या जो उपक्रम होता है उसे ईहा कहते हैं । ईहा को ऊह, तार्क परीक्षा विचारणा या जिज्ञासा भी कहते हैं। ईहा के पश्चात् पदार्थ का विशेष धर्म का निश्चश हो जाना अधाय है । अचाक्ष के द्वारा जाने हुए विषय में जो प्रतिपाति या पति स्थिरता होती है, उले धारणा कहते हैं। चक्षु इन्द्रिय और रूप का अथायोग्य लनिपाल होने पर यह रूप है' इस प्रकार सामान्य ग्रहण होना अपग्रह है । अक्षग्रह के द्वारा जाने हुए विषय में विशेष को जानने की आकांक्षा होना ईहाज्ञान है । ईहाज्ञान अद्यापि विशेष का निर्णय नहीं कर पाता तथापि विशेष की ओर उन्मुख हो जाता है। तत्पश्चात् जन ज्ञान विशेष निश्चय कर लेता है तब वह अचाय कहलाता है, जैसी यह बलाका (बगुला की पंक्ति) ही है, છે. દર્શને પગ પછી જે અવ્યક્ત, અપરિક્રુટ બંધ અંશ થાય છે તે વ્યંજના વગ્રહ કહેવાય છે. અને વ્યંજનાપગ્રહની પછી અત્તર સામન્યને જાણનારૂ જ્ઞાન અર્થાવગ્રહ કહેવામાં આવે છે. સામાન્ય રૂપથી જાણેલા તે જ વિષયમાં વિશેષ જાણવાની જે આકાંક્ષા થાય છે અથવા જે ઉપકેમ થાય છે તેને ઈડા કહે છે. ઈહાજ્ઞાન છે કે વિશેષને નિર્ણય કરી શકતું નથી. તે પણ વિશેષની તરફ ઉન્મુખ થઈ જાય છે. ત્યાર પછી જ્યારે જ્ઞાન વિશેષને નિશ્ચય કરી લે છે ત્યારે તે અવાય કહેવાય છે. જેમકે આ બગલાંની હાર જ છે, ધજા નથી,
SR No.010523
Book TitleTattvartha Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages895
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy