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________________ ७६८ तत्त्वायसूत्रे अतीतार्थ ग्राहिणी प्रतीति:-स्मृतिः 'हक्षता तलाशादिनी' तदेवेदन इत्यादि बुद्धिः प्रत्यभिज्ञा, तथाचान-इन्द्रिय निमित्त सेकं पतिज्ञानम् अपरनिन्द्रिय मनोनिमित्तम् अन्यत्पुनरिन्द्रियानिन्द्रियनिमिरञ्चेति । तृतीयं सनितान छत्रदय चकारेण समुच्चीयते, तत्र-एकमिन्द्रियनिमित्तं पत्तिज्ञानस्, यथा-पृथिव्यप्तेजो वायद नरपतीनामेकेद्रियाणां द्वि-नि-चतुरिन्द्रियाणा संक्षिां च पञ्चन्द्रियाणां मनसोऽभायात् संजायते । अनिन्द्रिय मनोनिमित स्मृतिस्पं ज्ञानम् इन्द्रियनिरपेक्ष भवति, तत्र चक्षुरादीन्द्रिगव्यापाराभावात् इन्द्रियानिन्द्रियनिलितन्तु-जामदवरथायां स्पर्शनेन मनसा चोपयुक्तो जीवः कश्चित स्पृगति-उष्णमिदं नीतञ्चति । तंत्रन्द्रियनिमित्तं मतिज्ञानं स्पीनरपनघाणचक्षुःश्रीनाणां पश्चानामिन्द्रियाणां परिसगन्धरूपशब्देषु पञ्चमु स्वपियेषु संजायते अनिन्द्रियमनोनिमित्तञ्च स्मृतिरूपं जानी जाय यह बुद्धि कहलाती है आगामी साल से लंबन्न दखने वाली बुद्धि को मति कहते हैं । धारणा वाली बुद्धि मेधा पहलाती है और अतीतकालीन वस्तु को विषय भरने वाली मजा हल्लाती है। नई-नई सूझ वाली बुद्धि को प्रतिभा, पुरानी बात को शाद करना स्कृति है। 'यह वही है 'इल प्रकार भून और वर्तमान शालिक पर्यायों की एकता को जानने वाली बुद्धि प्रत्यभिज्ञा कहलाता है। इस प्रकार एक मतिज्ञान इन्द्रियनिमित्तक और दूसरा मनोलिमित्तक है। कोई इन्द्रिय मनोनिमित्तक भी होती है ? मलिज्ञान के हम नीबारे भेद का सूत्र में प्रयुक्त च शब्द ले ग्रहण होता है। केवल इन्द्रियानिमित्त मतिज्ञान पृथ्वीशाय अपूतान, लेजस्काय, वायुझाय. और वनस्पतिसाय, इन एकेन्द्रियजीदों को तथा धीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियजीवों को होता है, क्योंकि इन भन का अभाव होता है। मनोनिमित्तक मतिज्ञान स्न रणरूप होता है और उसमें इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं रहती, इन्द्रियों का કહે છે. ધારણાવાળી બુદ્ધિ મેધા કહેવાય છે અને અતીત કાલિન વસ્તુને વિષય કરવાવાળી પ્રજ્ઞા કહેવાય છે. નવીનવી હૈયાઉલત વાળી બુદ્ધિને પ્રતિભા, नी वातन सभाकी स्मृति छ. " ते छ" से शत सूत मने वतવર્તમાનકાલિક પર્યાની એકતાને જાણનારી બુદ્ધિ પ્રત્યભિજ્ઞા કહેવાય છે. આ રીતે એક મતિજ્ઞાન ઈન્દ્રિય નિમિત્તક અને બીજું મને નિમિત્તક છે. કઈ ઈન્દ્રિય મને નિમિત્તક પણ હોય છે. મતિજ્ઞાનનાં આ ત્રીજા ભેદનુ સૂત્રમાં વપરાચેલ “ચ” શબથી ગ્રહણ થાય છે માત્ર ઈન્દ્રિયનિમિત્તક મતિજ્ઞાન પૃથ્વીકાય, અપકાય તેજસ્કાય વાયુકાય અને વનસ્પતિકાય, એ એકેન્દ્રિય ને તથા બેબુંદ્રિય તેઈદ્રિય, ચૌઈ દ્રિય, તેમજ અસજ્ઞિ પંચેન્દ્રિય જીવોને થાય છે કારણકે એમનામા મનને અભાવ હોય છે અને નિમિત્ત મતિજ્ઞાન મરણ રૂપ હોય છે,
SR No.010523
Book TitleTattvartha Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages895
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size73 MB
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