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________________ प्रथम अध्याय [ १६ ) एक ही वस्तु, एक ही व्यक्ति को सुख और दुःख पहुंचाने वाली प्रतीत होती है। भूख लगने पर मिठाई सुखदायक मालूम होती है, पर ढूंस-ठूस कर खा चुकने के पश्चात् एक कौर निगलना भी अत्यन्त कष्टकर हो जाता है। अगर मिठाई सुख-दुःख देती हो तो वह दोनों अवस्थाओं में समान होने के कारण एक-सा सुख या दुःख दती। पर मन की परिणति बदल जाने के कारण वह कभी सुख कभी दुःख जनक मालूम होती है। इसी प्रकार केशलोच, अनशन आदि तपस्या को प्रात्म कल्याण के अर्थी, समभाव के सुरम्य सरोवर में निमग्न रहने वाले मुनिराज कष्ट रूप अनुभव नहीं करते, अतएव तपस्या में श्रात्म-हिंसा की संभावना भी नहीं की जा सकती, मुनिजन तप को परिणाम में सुखजनक होने के कारण सुख-रूप ही समझते हैं । अतएव उससे असातावेदनीय का अाश्रव भी नहीं होता । क्रोध आदि कषायों से प्रेरित होकर जो कष्ट सहन किया जाता है वही असातावेदनीय के प्रास्रव का कारण होता है,। संसार के विषयों से होने वाले महान् दुःखों से उद्विग्न, भिनु उन दुःखों से छूटने में दत्तचित्त होते हैं और शास्त्रोक्त कार्यों में प्रवृत्ति करते हैं अतएव संक्लेश परिणाम का सर्वथा अभाव होने से उन्हें आत्महिंसा का पाप स्पर्श भी नहीं करता। आत्म-दमन करने वाला उभय लोक में सुख पाता है, पर जो आत्मदमन से विमुख हो कर राग रंग में मस्त रहता है उसे क्या फल भोगना पड़ता है ? इस प्रश्न का निराकरण करने के लिए सूत्रकार ने उत्तरार्ध में कहा है । जो श्रात्म-दमन नहीं करता वह दूसरों के द्वारा वध और बन्धन आदि उपायों से दमन किया जाता है। अर्थात् जो अपनी इन्द्रियों को वशमै नहीं करता और तपस्या नहीं करता वह पाप-क्रियाओं में प्रवृत्त होकर इस लोक में राजा, आदि के द्वारा बध-बंधन के कष्ट भुगतता है और परलोक में यदि नरक गति में जाता है तो दूसरे नारकियों तथा परमाधामी देवों द्वारा वध-बन्धन के कष्ट भोगता है और तिर्यञ्च गति में जाता है तो दूसरे तिर्यञ्चों तथा मनुष्य आदि के द्वारा वध-बंधन के कष्ट भोगता है । इस कष्टसहन के पश्चात् भी संक्लेश परिणामों के कारण कष्टों की लम्बी परम्परा चली जाती है। अत: बिना संस्लेश परिणामों के,स्वेच्छापूर्वक संयम और तप का आचरण करना ही श्रेयस्कर है, जिससे अनादि कालीन दुःख-परम्परा का सर्वथा विनाश हो जाता है और प्रात्मा बन्धन.से मुक्त होकर एकान्त सुखी बन जाता है । अक्षय सुख का एक मात्र यही राजमार्ग है। अतएव प्रत्येक विवेक शाली को अपनी शक्ति के अनुसार सरल संयम या एकदेश संयम का पालन करना चाहिए और समाधि पूर्वक यथा शक्ति तपस्या का प्राचरण करना चाहिए। यहाँ बंधणेहिं बहेहिं य' इन पदोंमें बहुवचन का प्रयोग करके सूत्रकारने वधवंधन का चाहुल्य सूचित किया है ।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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