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________________ Casse nten ६६० ] नरक वर्ग-निरूपण कर्म प्रधान नहीं। यही कारण है कि देवता धर्म की विशिष्ट श्राराधना करके उसी भव से मुक्ति नहीं पाते। यहां तक कि सर्वालिद्ध विमान के देवों को भी मनुष्यभव धारण करना पड़ता है और मनुष्यभव से ही उन्हें मुक्ति प्राप्त होती है । अतएक आत्मिक विकास की दृष्टि से मनुष्यभव सर्वोत्कृष्ट है और सुख-भोग की दृष्टि से देव भव सवात्कृष्ट है। - विवेकशील पुरुषों को विविध प्रकार के शील का पालन करना चाहिए, जिस से उन्हें स्वर्ग एवं अपवर्ग की प्राप्ति हो। मूल:-तत्थ हिच्चा जहाठाणं, जक्खा भाउजखए चुया ।। उवोंत माणुसं जोणिं, से दसंगेऽभिजायई ॥३१॥ छायाः-तत्र स्थित्वा यथास्थानं, यक्षा श्रायुःक्षये च्युताः । उपयान्ति मानुषी योनि, स दशाङ्गेऽभि जायते ॥ ३ ॥ .. शब्दार्थः-देवलोक में यथास्थान रहकर आयुष का क्षय होने पर वहाँ से च्युत हो जाते हैं और मनुष्य योनि प्राप्त करते हैं वहां वे दस अंगों वाले-समृद्धि से सम्पन्न मनुष्य होते हैं। साया- देवभव उत्कृष्ट से उत्कृष्ट वैवायिक सुखों का धाम है, फिर भी वह . अक्षय नहीं है । अन्यान्य भवों के समान उसका भी क्षय हो जाता है। बंधी हुई श्रायु भोग कुकने के पश्चात देव उस भव का त्याग करते हैं। फिर भी प्राचारित शील से उत्पन्न हुप पुण्य के अवशेष रहने के कारण वे मनुष्य योनि प्राप्त करते हैं। मनुष्य योनि में उन्हें दस प्रकार की ऋद्धि प्राप्त होती है। दल प्रकार की ऋद्धि का कथन स्वयं शास्त्रकार अगली गाथा में करेंगे। यहां यह समझ लेना श्रावश्यक है कि प्रत्येक देव च्युत हो कर मनुष्य ही हो, ऐसा नियम नहीं है। कोई देव मनुष्य और कोई तिर्यञ्च भी हो सकता है। मिथ्यादृष्टि देव मरकर तिर्यन होता है और सम्यग्दृष्टि देव मनुष्य भव पाते हैं । यहां विशिष्ट शीलवान सम्यग्दृष्टि देव का प्रसंग होने के कारण मनुष्य योनि की प्राप्ति का कथन किया गया है। मूलः-खित्तं वत्थु हिरगणं च, पसवो दासपोरुस । चत्तारि कामखंधाणि, तत्थ से उववजई ॥३२॥ छाया:-क्षेत्र वास्तु हिरण्यञ्च, पशवो दासपीरुपम् । चत्वार कामस्कन्धाः , तत्र स उत्पद्यते ॥ ३२॥ शब्दार्थ:--क्षेत्र, वरतु, हिरण्य, पशु, दास, पौरुष और चार बार कामस्कन्ध, जहाँ होते हैं, वहां वह देव जन्म लेता है।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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