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________________ सत्तरहवां अध्याय * 64 उनकी यह अवस्था अन्त तक बनी रहती है। उन्हें कभी बुढ़ापा नहीं पाता। 'देवगति से हमें च्युत होना पड़ेगा' ऐसा उन्हें विचार नहीं आता, क्योंकि वे स्वर्गीय सुखों में डूबे रहते हैं तथा एक ही अवस्था में रहते हैं। देवों को चैक्रियक शरीर. प्राप्त होता है / इस शरीर में यह विशेषता होती है कि उससे मनचाहा रूप बनाया जा सकता है। छोटा-बड़ा, एक. अनेक इत्यादि यथेष्ट रूप धारण करने की क्षमता होने के कारण देवों को श्रानन्द रहता है और सुखों के प्राधिक्य के कारण के भविष्यय की चिन्ता से मुक्त रहत हैं। देवों की यह अवस्था मनुष्यों के समान लौ-पचास वर्ष तक ही कायम नहीं रहती, वरन् सैकड़ों पूर्व वर्ष पर्यन्त रहती है / पूर्व एक बड़ी संख्या है, जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है / देवलोकों की स्थिति का वर्णन भी किया जा चुका है। इस प्रकार श्राचरण किये हुए शील के प्रभाव से उत्तम देवगति की प्राप्ति होती देव ऊर्ध्वलोक में रहते हैं। यह पहले बताया गया है कि मेरु पर्वत के समतल भाग से नौ सा योजन ऊपर तक मध्यलोक गिना जाता है और उससे भागे ऊर्ध्वलोक श्रारम्भ होता है। वहीं देवों के विमान हैं / शनैश्चर ग्रह के विमान की ध्वजापताका से डेढ़ राजु ऊपर प्रथम सौधर्म नामक स्वर्ग है और उसी की बराबरी पर दूसरा स्वर्ग है। शेष स्वर्ग इनके ऊपर-ऊपर हैं। सर्वार्थ सिद्ध नामक विमान सब से ऊपर है और सिद्धाशला वहां से सिर्फ बारह योजन की ऊंचाई पर रह जाती है। देवगति के सुख प्रादि का वर्णन जिज्ञासुओं को अन्यत्र देखना चाहिए। मूल:-जहा कुसग्गे उदगं, समुद्देण समं मिणे / एवं माणुस्सगा कामा, देवकामाण अंतिए // 30 // छायाः-यथा कुशा उदक, समुद्रेण समं मिनुयात् / एवं मानुप्यका कामाः, देवकामानासन्तिके // 30 // शब्दार्थ:-जैसे कुश की नौक ठहरी हुई बूंद का समुद्र के साथ मिलान किया जाय वैसे ही मनुष्य सम्बन्धी काम-भोग दवों के कामभोगों के समान हैं। भाग्यः-शास्त्रकार ने यहां देवगति के काम-सुन्त्रों को धोदे दी शब्दों में प्रभावशाली ढंग से चित्रित कर दिया है। देवगति के सुख समुद्र के समान हैं तो उनकी तुलना में मनुष्यगति के सुस्त फुश नामक घास की नोक पर लटकने वाली एक बूंद के समान है / कहां एक बंद और कहां समुद्र की असीम जल राशि दोनों में महान थन्तर है। इसी प्रकार मनुष्यों और देवी के सुखों में भी महान् अन्तर है / मनुप्य की बड़ी से बड़ी माद्धि भी देविका द्धि के सामने नगण्य है। संसार के सर्वश्रेष्ट सुरन देवगति में ही प्राप्त दाते हैं। इतना होने पर भी मनुष्यभव में एक विशेषता है। देवभव भोग प्रधान मय है,
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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