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________________ - - - - सत्तरहवां अध्याय छायाः-येषां तु विपुला शिक्षा, मूलं तेऽतिक्रान्ताः । सीलवन्तः सचिशेषाः, अदीना यान्ति देवत्वम् ॥ २७ ॥ . . शब्दार्थः--जिन्होंने विपुल शिक्षा का सेवन किया है, वे शीलवान् ,उत्तरोत्तर गुणों की वृद्धि करने वाले और अदीन वृत्ति वाले पुरुष मूल धन रूप मनुष्य भव को अति. क्रमण करके देव भव को प्राप्त करते हैं। भाज्य:--देवगति का वर्णन करने के पश्चात् उसके कारणों पर यहां प्रकाश डाला गया है। जिन पुरुषों ने धर्म का श्राचरण किया है, वे प्राप्त मानव-जीवन रूपी पूंजी को चढ़ा लेते हैं। जो शील का अर्थात् सम्यक् चारित्र का पालन करते हैं,निरन्तर शात्मिक गुणों के विकास में तत्पर रहते हैं तथा आत्मिक गुणों को आच्छादित करने वाले विकारों के उपशमन में उद्यत रहते हैं और विविध प्रकार के परीषद तथा उपसर्ग श्राने पर भी दीनता नहीं धारण करते-उन्हें धैर्य एवं अन्य के साथ सहन करते हैं, वे पुरुष देवगति प्राप्त करते हैं। मानवजीवन रूप पूंजी के विषय में एक कथानक है ! किसी साहूकार ने अपने तीन पुत्रों को एक-एक सहस मुद्रा दे कर व्यापार के लिए विदेश में भेजा । उनमें से एफ ने सोचा-'अपने घर में पर्याप्त धन है। भोगोपभोग के साधनों की भी कमी नहीं है। ऐसी स्थिति में व्यापार करके धनोपार्जन करने का कष्ट उठाने से क्या लास है ? ' इस प्रकार विचार कर उसने अपने पास की मूल पूंजी खो दी। दूसरा पुत्र, पहले पुत्र की अपेक्षा कुछ अध्यवसायशील था। उसने विचार किया-'धन-वृद्धि करने की तो आवश्यकता है नहीं, मगर पिताजी की दी हुई मूल पूंजी समाप्त कर देना भी अनुचित है । अतएव मुन्त धन स्थिर रखकर उपार्जन किये हुए धन का उपभोग करना चाहिए।' इस प्रकार विचार कर उलने मूल पूंजी क्यों की त्या स्थिर रयस्त्री, पर जो कुछ उपार्जन किया वह सय ऐशआराम में समाप्त कर दिया।' तीसरा पुत्र विशेष उद्योगशील था। उसने मूल पूंजी को स्थिर ही नहीं रक्ता, वरन् उसमें पर्याप्त वृद्धि की । यही यात संसार के जीवों पर घटित होती है। मनुष्यभव मूल पूंजी के समान है। सभी मनुष्यों को यह पूंजी प्राप्त हुई है। मगर कोई-कोई प्रमादशील मनुष्य इस का उपयोग मात्र करते हैं, परन्तु आगे के लिए कुछ भी नवीन उपार्जन नहीं करते। वे अन्त में दुःस, शोक एवं पश्चात्ताप के पात्र बनते हैं और चिरकाल पर्यन्त भयभ्रमण का कष्ट उठाते हैं। कुछ मनुष्य दूसरे पुत्र के समान हैं, जो पुण्य रूप धन की वृद्धि तो नहीं करते मगर फुछ नवीन उपार्जन करके प्राप्त पूंजी को स्थिर रखते हैं। कुछ मनुष्य तृतीय पुत्र के समान उद्योगी होते है। ये मनुष्य जन्म रूप पूंजी को बढ़ाने में सदा उद्योगशील रहते हैं। ऐसे पुरुष पुण्य रूप पूंजी को यदा कर देवगति प्राप्त करते है और अनुक्रम से मुनि-लाभ भी करते है।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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