SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 681
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - लेलिहवा अध्याय । ६२३ ] · श्रावश्यकों का अनुष्ठान करने वाला ही धर्म का आराधक है। अतएव प्रत्येक लाधु और श्रावक को अपनी-अपनी सादा के अनुसार उनका आचरण करना चाहिए। मूलः-सावजजोगविरई, उक्कित्तण गुणवत्रो य पडिवत्ती । खलिअस्स निंदणा, चणतिगिच्छ गुणधारणा चेव १८ छायाः-सावद्ययोगविरतिः, उत्कीर्तनं गुणवतश्च प्रतिपत्तिः।। स्खलितस्य निन्दना, व्रणचिकित्सा गुणधारणा चैय ॥८॥ शब्दार्थः-हे गौतम ! सावध योग से निवृत्ति, ईश्वर के गुणों का कीर्तन, गुणी पुरुषों का आदर, अपनी स्खलना की निन्दा, व्रण (घाव ) के समान आचरित दोष के लिए प्रायश्चित रूपी चिकित्सा और स्याग रूप गुण को धारण करना चाहिए। भाष्यः--जीवन को विशुद्ध बनाने के लिए जिन-जिन बातों की श्रावश्यकता है, यहां शास्त्रकार ने उनका उल्लेख्न क्रिया है। सावध का अर्थ है- पाप । जो पापयुक्त हो वह सावध कहलाता है । मन, वचन और शरीर की क्रिया को योग कहते हैं। योग का स्वरूप पहले वतलाया जा चुका है। तात्पर्य यह है कि जीवन-शुद्धि के लिए सर्वप्रथम मन, वचन और काय को निष्पाप बनाना चाहिए । पाप में इनका प्रयोग नहीं करना चाहिए। 'उकित्तण' अर्थात् परमेश्वर के गुणों का कीर्तन करना। कुछ लोगों की ऐसी भावना है कि दयावान् परमेश्वर के गुणों की स्तुति करने से वह प्रसन्न हो जाता है और स्तुति करने वाले के पापों को क्षमा कर देता है। किन्तु वास्तव में यह सत्य नहीं है । किये हुए पापों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। ईश्वर को ऐसा चापलूसीपसन्द नहीं है कि पाप करने वाले उसकी प्रशंसा करें तो वह पाप के फल से मुक्त कर दे। ऐसा होना संभव भी नहीं है। यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि, अगर ऐसा नहीं है तो ईश्वर का गुण-कीर्तन किस उद्देश्य से किया जाता है ? इस प्रश्न का संक्षिप्त समाधान इस प्रकार है। वास्तव में आत्मा और ईश्वर में कुछ भी मौलिक अन्तर नहीं है । जो कुछ भी अन्तर है, वह अवस्था का अन्तर है । जो श्रात्मा अपने श्रज्ञान, कालुप्य आदि को सर्वथा नष्ट कर चुका है, जिसने श्रात्मा की स्वाभाविक स्थिति प्राप्त करती है वद ईश्वर है और जो श्रात्मा श्रज्ञान आदि विकारों से ग्रस्त है यह. संसारी आत्मा कह 'दिवसचरिमं पच्चक्वामि--असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अन्नत्यणामोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, लम्बसमाहियत्तियागारेणं चोसिरे ।' इत्यादि अनेक प्रकार की छोटी-पड़ी तपस्याओं के प्रत्याध्यान है, जिनमें थोड़ा-धोड़ा अन्तर होता है।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy