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________________ । पन्द्रहवां अध्याय शरीर विष जाता है और वह मृत्यु को प्राप्त होता है। जिह्वा लोलुप अन्य जीवों की भी ऐसी ही दशा होती है । अतएक इल संबंधी लोलुपता का त्याग करना चाहिए । मूल:-फासस्स जो गिद्धि मुवेइ तिव्वं, - अकालियं पावइ से विणास। रागाउरे सीयजलायसन्ने, गाहग्गहीए महिसे व रगणे ॥१८॥ छाया:-स्पर्शपु यो गृद्धि मुपैति तीव्राम, अकालिक प्राप्नोति स विनाशम् । रागातुरः शीत जतावसलः, ग्राहग्रहीतो महिष इवारण्ये ॥ १८॥ शब्दार्थ:-जैसे अरण्य में, शीतजल के स्पर्श का लोभी-ठंडे जल में बैठा रहने बाला, रागातुर भैंसा, मगर, द्वारा पकड़ लिए जाने पर मारा जाता है, इसी प्रकार जो युरुष स्पर्श के विषय में तीन गृद्धि धारण करता है वह असमय में विनाश को प्राप्त होता है। भाष्यः-स्पर्शनेन्द्रिय के वशीभूत होकर भैंसा, नदी के गंभीर जल में बैठ कर आनन्द मानता है। मगर जब्द मगर भाकर उसे पकट लेता है। तो भैंसे को अपने पाण गवाने पड़ते हैं । इसी प्रकार जो पुरुष स्पर्शनेन्द्रिय के विषय में अत्यन्त आसक्त होता है उसे भी समय में प्राणों से हाथ धोने पढ़ते हैं। शास्त्रकार ने एक-एक इन्द्रिय की लोलुपता द्वारा होने वाले अपाय का निसपण एक-एक गाथा में किया है । इसका अभिप्राय यह है कि जब एक-एक इन्द्रिय के विषय में असंक्त प्राणी भी विनाश को प्राप्त होते हैं, तब पांचों इन्द्रियों के विषयों में निम्न श्रासक्ति रखने वाले मनुष्यों की कैसी दुर्दशा होगी ! यह स्वयं समझ लेना चाहिए। पांचों इन्द्रिय के विषय में तिर्यों का उदाहरण दिया गया है । चेचारे तिर्यच विशिष्ट विवेक से विकल दें और शास्त्रीय उपदेश को श्रवण करने योग्य नहीं हैं। अतः उनकी यह दुर्दशा होती है, मगर जो मनुष्य विशिष्ट विवेक से विभूषित है और शास्त्रकार जिसे प्रशस्त पथ प्रदर्शित कर रहे हैं, वह भी अमर इन्द्रियों के अधीन होकर पशु-पक्षियों की भांति अपने सरण को भामंनित करे तो आश्चर्य की बात है। श्रतः पांचों इन्द्रियों के विषयों संबंधी शासक्ति का त्याग कर मध्यस्थ भाव भूर्वक विचरना चाहिए। निन्ध-प्रवचन-पन्द्रहवां अध्याय समाप्त
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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