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________________ पन्द्रहवां अध्याय _ [ ५६१ ] शुक्ल ध्यान में सूक्ष्म काय योग ही रहता है और चौथा 'अयोगी महापुरुषों को ही होता है। इस प्रकार धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान के द्वारा मन पर विजय प्राप्त करनी चाहिए । शुक्ल ध्यान, ध्यान की उत्कृष्ट एवं सर्वोच्च स्थिति है। इस स्थिति को . प्राप्त करने के लिए प्रारंभिक तैयारी की अनिवार्य आवश्यकता है। ध्यान की योग्यता प्राप्त करने के लिए मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ्य श्रादि तथा अनित्यता, अशरंगता आदि भावनाओं से चित्त को सुवासित करना चाहिए। प्राणी मात्र पर मित्रता का भाव होना मैत्री भावना है। गुणीजनों को देख कर प्रसन्न होना, सद्गुणी पुरुषों के गुणों में अनुराग होना प्रमोद भावना है। दीन-दुःखी प्राणियों को देख कर उनका दुःख दूर करने की भावना होना करुणा भावना है। पाप कर्म करने वाले, दुराचारी पुरुषों के प्रति, तथा धर्म-निन्दकों के प्रति उपेक्षा-बुद्धि होना माध्यस्थ्य भावना है । अनित्यता आदि बारह भावनाओं का निरूपण पहले किया जा चुका है । इन भावनाओं के पुनः-पुनः चिन्तन से चित्त की विशुद्धि होती है और , ध्यान करने की योग्यता प्राप्त हो जाती है। ध्यान करने के लिए समुचित क्षेत्र और काल का भी विचार करना चाहिए। ध्यान के लिए ऐला क्षेत्र उचित है जहां किसी प्रकार का क्षोभ न हो, कोलाहल न हो, दुष्ट पुरुषों का, स्त्रियों का तथा नपुंसकों का आवागमन न हो। जहां पूर्ण रूप से शांति हो, श्रास-पाल में गाना बजाना न हो, दुर्गन्ध न पाती हो, अत्याधिक गर्मी-सी न हो, जानवरों का त्रास न हो। इस प्रकार का योग्य और निराकुलताजनक स्थान ध्यान के लिए उपयुक्त होता है। कहा भी है यत्र रागादयो दोषा अजस्त्रं यान्ति लाघवम् । तत्रैव वसतिः साध्वी ध्यानकाले विशेषतः॥ अर्थात् जिस स्थान में रहने से राग नादि दोष शीघ्र हट जावे वहीं निकाल करना अच्छा है। ध्यान के समय तो खास तौर से इस बात का विचार रखना चाहिए। ध्यान के लिए प्रातःकाल, मध्याह्नकाल और सायंकाल उचित अवसर है। छह-छह घड़ी पर्यन्त ध्यान का समय है। किन्तु यह अनिवार्य नहीं है । ध्याता अपनी ' शक्ति के अनुसार चार घड़ी, दो घड़ी या एक घड़ी का ध्यान कर सकता है और क्रमशः अभ्यास बढ़ा सकता है। ध्यान में श्रासन का कोई विशेष नियम नहीं है । पर्यकासन, अर्द्धपर्यकासन, चीरासन, वज्रासन, पनासन, भद्रासन, दण्डासन, उत्कटिकासन, गोदोहिकासन, कायोत्सर्ग आदि अनेक आसन है । जिस श्रासन का अवलम्बन करने से निराकलता हो और मन स्थिर हो उसी को ध्यान का साधन मान कर मन को स्थिर करना चाहिए । ध्यान करते समय दोनों ओष्ट बन्द कर लेना चाहिए, दृष्टि नासिका के मत ।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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