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________________ - - . मनोनिग्रह इल प्रकार पिण्डस्थ ध्यान से प्रारम्भ करके रूपातीत ध्यान तक का अभ्यास करने ले मन की चंचलता ही नष्ट नहीं होती, वरन् आत्मा विशुद्ध बनती है। (४) शुक्ल ध्यान-शुक्ल ध्यान वज्रऋषभनाराच संहनन वाले तथा पूर्व नामक शालों के ज्ञाता महामुनि ही कर सकते हैं। अल्प बल वाले और विविध विषयों में व्याकुल चित्त बाले तुद्र मनुष्य का मन किसी भी प्रकार पूर्ण रूप से निश्चल नहीं चन लगता। ___ शुक्ल ध्यान के भी चार भेद है--(१) पृथक्त्व वितर्क लविचार ( २ ) एकक वितर्क अविचार ( ३ ) सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाती और (४) समुछिन्न क्रिया। (क) पृथक वितर्क सविचार--यहां वितर्क का अर्थ है--श्रुत या शास्त्र और विचार का अर्थ है--अर्थ, शब्द और योग का संक्रमण होस । तात्पर्य यह है कि कोई योगी पूर्व नामक श्रुत के अनुसार किसी भी एक द्रव्य का आश्रय लेकर ध्यान करे और उस समय द्रव्य के किसी एक पाय पर स्थिर न रहते हुए, उसकी अनेक पर्यायों का चिन्तन करे, तथा कभी द्रव्य का चिन्तन करते-करते पर्याय का और पर्याय का चिन्तन करते-करते द्रव्य का चिन्तन करने लेगे, अथवा द्रव्य का चिन्तन करते-करते उसके वाचक शब्द का अथवा शब्द से हट कर द्रव्य का.चिन्तन करे, इसी प्रकार जिस ध्यान में एक योग की स्थिरता न रहे--संक्रमण होता रहे वह पृथऋत्व वितर्क सविचार नामक शुक्ल-ध्यान कहलाता है। (ल) एकत्व विचार-विचार-पूर्व क्षुत के अनुसार किसी एक द्रव्य का अवलम्वन करके, उसकी एक ही पर्याय पर चित्त एकाग्र करके शब्द, अर्थ या योग का परिवर्तन न करते हुए ध्यान करना एकत्व वितर्क-विचार शुष्पल ध्यान साहलाताई। पहले पृथक्त्व वितर्क ध्यान का अभ्याल हद हो जाने पर दूसरे-दूसरे शुक्ल ध्यानी योग्यता प्राप्त होती है। दूसरे ध्यान के प्रभाव से मन शान्त एवं निश्चल बन जाता है। फल स्वरूप चारों घाति कमों का चय हो जाता है और साता की प्राप्ति होती है। म) समझियाऽप्रतिपाति-मन, वचन और काय के स्थूल योगों का निरोध. १. सिर्फ श्वासोच्छवास जैसी सूचम किया ही शेष रह जाने पर जो ध्यान होता है यह लक्ष्मझिया प्रतिपाति ध्यान कहलाता है। उससे फिर पतन की संभावना नहीं रहनी अतएव उसे 'अप्रतिपाति' सहा मया है। (घ) समुच्छिन झिया-तृतीय शुक्ल च्यान के पश्चात् जय सूक्ष्म शिया का भी अस्तित्व नहीं रहता और आत्मा के परिणाम सुमेर की तरह अचल हो जाते हैं, उस समय ध्यान को समुच्छिन क्रिया ध्यान कहा गया है। शुक्ल यान में मन, वचन और कार में से किसी एक का अथवा तीनों 10 मरे में तीन में से किसी भी एक काव्यासर होता है। तीसर
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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