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________________ पन्द्रहवां अध्याय [ २४१ ] घाला-मन संसार को जन्म-मरण की घानी में पोल रहा है। संसार से विमुख हो कर एकान्त, शान्त और निरुपद्व स्थान में जाकर मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा ले तीन तपस्या का आचरण करने वाले मुनियों को भी सन कभी-कभी चंचल बना देता है। मन बंदर से भी अधिक चंचल है । पल-पल में बह नया-नया रंग दिखलाता रहता है। मुक्ति की साधना में मन की यह चंचलता लब ले प्रबल बाधा है। अतएव मुसुक्कु जनों को अपनी साधना सार्थक करने के लिए सज पर पूरा नियंत्रण करना चाहिए। महापुरुषों का कथन है कि मन की शुद्धता होनेपर अविद्यमान गुण है श्राविर्भूत हो जाते हैं और मन शुद्ध न हो तो मौजूदा गुण भी नष्ट हो जाते हैं । अतएव प्रत्येक संभव उपाय से विवेकवान् पुरुष को मन पर विजय प्राप्त करनी चाहिए जैसे अंधे के आगे रफ्खा हुआ दर्पण वृधा है, उसी प्रकार सनोनिग्रह के अभाव में तपस्या भी निरर्थक है। मन का निग्रह हो जाने पर इन्द्रियों का जीत लेना कठिन नहीं रहता। इन्द्रियों को उन्मार्गगामी और घपल अश्व की उपमा दी जाती है। जिनके इन्द्रिय रूपी अब नियंत्रण में नहीं होते अर्थात् जो पुरुष इन्द्रियों को विना लगाम के स्वतंत्र गति करने देता है और स्वयं इन्द्रियों का शानुचर बन जाता है, उसे इन्द्रिय रूप अश्व शीघ्र ही नरक रूपी अरण्य की ओर ले जाते हैं । जो इन्द्रियों का निग्रह नहीं करते उनका निश्चित रूप से अधःपतन.होता है। इन्द्रिय निग्रह न करने से परलोक में कितने कर भुगतने पड़ते हैं, इल बात को थोड़ी देर के लिए रहने भी दिया जाय और सिर्फ इसी भव के कष्टों का विचार किया जाय तो इन्द्रियों की अनर्थता स्पष्ट हो जाती है। जो लोग पांचों इन्द्रियों के अधीन हो रहे हैं, उनकी क्या गति होगी। जबकि केवल एक-एक इन्द्रिय के गुलाम बनने वालों की भयंकर दुर्दशा प्रत्यक्ष देखी जाती है। केवल मात्र स्पर्शन-इन्द्रिय के अधीन होने वाले हाथी की दुर्दशा का विचार कीजिए। 'वह हथिनी के स्पर्श के अनुराग में अंधा होकर गड्ढे में गिरता है और वध बंधन की वेदनाएँ सहन करता है। इसी प्रकार अगाध जल में विचरने वाला मत्स्य जिह्वा के अधीन होकर जाल में फंसकर मृत्यु का शिकार हो जाता है । म्राण-इन्दिर का वशषत बनकर हाथी के मद के गंध से लुब्ध होकर हाथी के गण्डस्थल पर पैठने वाला श्रमर अपने प्राणों से हाथ धो बैठता है । चक्षु इन्द्रिय का दास. बनकर पतंग, अग्नि की ज्वाला का अतिथि बनता है और अपनी जान गँवा धैठता है। मधुर गान सुनने का श्रभिलाषी हिरन, श्नोत्र-इन्द्रिय के अधीन होकर व्याध के तौखे चार का लक्ष्य बनता है। इस प्रकार एक-एक इन्द्रिय के अधीन होने वाले प्राणियों की अब यह दशा होती है तव जो पांचों इन्द्रियों के अधीन हो रहे हैं उनकी क्या दशा होगी? __ शंका-जव तक शरीर है तब तक इन्द्रियां भी अवश्य रहती हैं और जातक इन्द्रियों हैं तब तक वे अपने-अपने विषय में प्रवृत्ति भी करेंगी ही ! ऐसी अवस्था में इन्द्रियनिग्रह कैसे हो सकता है ? ..
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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