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________________ . * ॐ नमः सिद्धेभ्य * नियन्ध प्रवचन ॥ पन्द्रहवां अध्याय ॥ मनोनिग्रह श्री भगवान्-उवाच-. मूलः-एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस । दसहा उ जिणित्ता णं, सव्वसत्त जिणामहं ॥१॥ छाया-एकस्मिन जिते जिता पञ्ज, पजस जितेपु जिता दश । दशधा तु जिस्या, सर्वशत्रून् जयाम्यहम् ॥१॥ शब्दार्थः-एक को जीत लेने पर पांच जीत लिए जाते हैं, पांच को जीतने पर दस के ऊपर विजय प्राप्त होती है और इस पर विजय प्राप्त करने वाला समस्त शत्रुओं पर जय पा लेता है। भाष्यः-चौदहवें अध्ययन में वैराग्य का विवेचन किया गया है। प्रात्मकल्याण की भावना जिसके हदय में उद्भूत हुई है उसे संसार से विरक्त हो जाना चाहिए-सांसारिक वस्तुओं में राग-द्वप का त्याग कर समभाव धारण करना चाहिए । इस अध्ययन में समभान के प्रधान कारण मनोनिग्रह का विवेचन किया जाता है। मनोनिग्रह के बिना समभाव नहीं हो सकता। इसी कारण वैराग्य सम्बोधन के पश्चात् मनोनिग्रह की प्रेरणा की गई है। आत्मविजय में सर्वप्रथम मन की विजय का स्थान है। जो सरवशाली पुरुष श्क मन को जीत लेता है वह पांच को अर्थात् पांच इन्द्रियों को जीत लेता है। अर्थात जिसने अपने मन को वश में कर लिया वह पांचो इन्द्रियों को वश में कर सकता है। मन को जीते बिना इन्द्रियां वश में नहीं होती। अतएव श्रात्मविजय की साधना करने वाला सर्व प्रथम अपने मन पर अधिकार करे । मन पर किल प्रकार अधिकार हो. सकता है, यह आगे निरूपण किया जायगा। मन पर विजय प्राप्त करने पर इन्द्रियां स्वयमेव विजित हो जाती हैं। मानसिक शुद्धि होने पर ही इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होती मानसिक शुद्धि के अभाव में यम, नियम आदि द्वारा किया जाने वाला काय-क्लेश व्यर्थ है । प्रवृत्ति न करने योग्य विषयों में प्रवृत्ति करने वाला और निरंकुश होकर घर-उधर भटकने
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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