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________________ चौदहवां अध्याय फरता है और धर्म को स्वीकार करता है। इस प्रकार आनुपूर्वी से अर्थात् क्रमपूर्वक " वह त्रस एवं स्थावर जीवों की यतना करने लगता है। वह कोई भी क्रिया करते समय प्राणि, हिंसा के प्रति सावधानी रखता है। उसके अन्तःकरण में सर्वत्र समताभाव उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार पांच अणुव्रत आदि रूप गृहस्थ के चतों से मुक्त होकर बह देव लोक की प्राप्ति करता है। तात्पर्य यह है कि गृहस्थी का त्याग करके महावत रूप सकल संयम का पालन करने की तो बात ही क्या है ? उससे तो मुक्ति तक की प्राप्ति होती है। परन्तु यदि कोई पुरुष इतना अधिक त्याग करने में समर्थ न हो तो भी उसे निराश नहीं होना चाहिए। गृहस्थी में रहते हुए भी गृहस्थ धर्म का विधिवत् पालन करना चाहिए । विधिवत् गृहस्थ धर्म का पालन करने से त्याग की वृत्ति बढ़ती है और शनैः-शनैः मुक्ति समीप श्राती जाती है। भूलः-अभविंसु पुरा वि भिक्खुवो, पाएसा वि भवंति सुब्बता एयाइं गुणाइं आहु ते, कासवस्स अणुधम्म चारिणो १० छाया:-अभवत् पुराऽपि भिक्षवः, प्रागमिप्या अपि सुव्रताः । एतात् गुणानाहुस्ते, काश्ययस्मानु धर्मचारिणः ॥१०॥ - थब्दार्थ:-हे भिक्षुओं ! पहले जो जिन हुए हैं और भविष्य में जो जिन होगें के सब सुनती थे अर्थात् सुबती होने से ही जिन हुए और होंगे। वे सभी इन गुणों का उपदेश देते हैं, क्योंकि वे काश्यप भगवान् के धर्म का आचरण करने वाले थे। .भाष्यः- प्रकृत गाथा में दो बातों पर प्रकाश डाला गया है प्रथम यह कि जिन अवस्था सुबतों का पालन करने पर प्राप्त होती है और दूसरी यह कि जिनके उपदेश में कभी भिजता नहीं होती। .. राग और द्वेष रूप कषाय को जीतने वाले जिन कहलाते हैं। जिन अवस्था आत्मा की ही एक विशिष्ट पर्याय है। सामान्य संसारी जीव सर्वक्षोक्त विधि-विधान का भाचरण करके, अपनी कषाय रूप विभाच परिणति से मुक्त हो कर स्वाभाविक परिणति को प्राप्त कर लेला है । प्रात्मा का शुद्ध स्वरूप में अवस्थान होना ही जिना अवस्था की प्राप्ति है। यह जिन अवस्था अहिंसा, सत्य, आदि व्रतों का सम्यक् प्रकार से आचरण करने पर प्राप्त होती है। मूल गाथा में 'व्रत की विशेषता बताने के लिए 'सु' विशेषण लगाया गया है। उसका प्राशय यह है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्नान पूर्वक आचरस किये जाने वाले व्रत ही सुव्रत कहलाते हैं और उन्हीं से जिन अवस्था की प्राप्ति होती है। मिया दर्शन के साथ आचरण किये जाने वाले विविध प्रकार के व्रत संसार-भ्रमण के कारण होते हैं। उनसे सांसारिक वैभव भले ही मिल जाय परन्तु माध्यात्मिक विभूति नहीं मिलती। .
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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