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________________ । १२ । আঁখি লাখ सत्य का निश्चय किया जा सकता है। श्रनुभव जिसका समर्थन करता है, ऐसे सत्य का निरूपण-जिस आगम में विद्यमान है वह सच्चा श्रागम है। . प्रागम की यथार्थता की एक कलौटी है-अनेकान्त दृष्टि । जिस दृष्टि में एकान्त का प्राग्रह नहीं है, जहां विभिन्न दाजुओं से वस्तु का उदारतापूर्वक निरिक्षण किया जाता है, वही दृष्टि निर्दोष होती है। जिस प्रागम में इसी दृष्टि से तत्वों का अवलोकन किया गया हो और उस अवलोकन के द्वारा विशाल एवं सम्पूर्ण सत्य की प्रतिष्ठा की गई हो वही पागम मनुष्य-समाज के लिए पथप्रदर्शक होता है । इस कसौटी पर कसने से श्रागम की सत्यता-असत्यता की परीक्षा हो जातर है और पूर्वोक्त उलझन भी दूर हो जाती है। इसीलिए प्रकृत गाथा में शास्त्रकार नागम पर श्रद्धान रखने का. उपदेश देते हैं और अन्त में मिथ्या श्रागम को त्याग कर सर्वज्ञ भगवान् द्वारा उयदि अागम के अनुसरण का उपदेश देते हैं। जो लोग अपनी क्षुद्र दृष्टि से परलोक श्रादि न देख सकने के कारण, अपनी क्षुद्र शक्ति स्वीकार करने के यदले परलोक आदि का ही निपेध करने लगते हैं, वे दया के पात्र हैं। नेत्र बंद कर लेने से जगत का प्रभाव नहीं हो सकता, इसी प्रकार किसी को सूक्ष्म, दरवत्ती या गद तत्व यदि दिखाई न दे तो इसी कारण उसका प्रभाव नहीं हो जाता। पूर्वोपार्जित मोदनीय और ज्ञानावर नानक कर्मों के उदय से ऐसे लोगों को दृष्टि विपरीत एवं अज्ञानमय है । उनका अनुसरण करने से एकान्त अहित होता है। जिन आत्मा का कल्याण करना है उन्हें सर्वोक्त नागम पर निश्चल श्रद्धा रसना चाहिए। उन्हें न तो पागम मात्र पर श्रद्धा करनी चाहिए और न सर्वत्र पुरुषों के द्वारा उपदिष्ट आगम पर श्रद्धा करनी चाहिए। मुलः-गारं पि अभावसे नरे, अणुपुव्वं गणेहिं संजए। समता सव्वत्थ सुव्ववे, देवाणं गच्छे सलोगयं ॥६॥ दाया:-प्रगारमपि वावमशारः, भानुपूर्ध्या प्रारण पु. संगतः।। __ समता सर्वत्र सुमाः, देवानां मच्छरपासताम् । शब्दार्थ:--घरमें रहता हुआ मनुष्य यदि अनुक्रम से प्राणियों की यतना करता है, सब जगह समभाव वाला है, तो ऐसा सुनत (गृहस्थ भी) देवताओं के लोक में जाता है मर्थात् देवलोक प्राप्त करता है। प्रायः-पूर्व गाथा में सर्व-रूपित मागम पर श्रद्धा करने का उपदेश दिया गया था। किन्तु मागम पर श्रद्धा करने से क्या लाभ होता है ? राइ बात यहां यतलाते हुए गृहस्थ धर्म का मात्य पतलाते हैं। जो सम्यष्टि पुरुष भागम पर श्रद्धा करता है, वह आगमोल धर्म का प्रदनः
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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