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________________ ! २ षट् द्रव्य निरूपण - आदि में आत्म-स्वरूप का निरूपण द्वादशांगी रूप निर्ग्रन्थ-प्रवचन से प्रस्तुत. निर्ग्रन्थ-प्रवचन की एक-रूपता सिद्ध करता है। प्राकृत गाथा में, श्रात्मा के सम्बन्ध में प्रधान रूप से तीन विषयों पर विचार किया गया है। वे इस प्रकार हैं: (१) श्रात्मा इन्द्रिय-ब्राह्य नहीं है, क्योंकि वह अमूर्त है; जो-जो अमूर्त होता . है। वह इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं होता; जैसे आकाश । आत्मा अमूर्त है अतएव वह इन्द्रियग्राह्य नहीं है। यहां 'आत्मा इन्द्रिय ग्राह्य नहीं है' यह प्रतिज्ञा-वाक्य है । 'क्योंकि वह अमूर्त हैं' यह हेतु हैं । 'जो-जो अमूर्त होता है वह इन्द्रिय ग्राह्य नहीं होता' यह अन्वयव्याप्ति है। आकाश अन्वय दृष्टान्त है । शेप उपनय और निगमन अंश हैं। इस प्रकार न्याय शास्त्रानुसार अनुमान वाक्य द्वारा श्रात्मा की इन्द्रिय-ग्राह्यता का निषेध किया गया है। (२) दूसरे अनुमान वाक्य द्वारा आत्मा की नित्यता सिद्ध की गई है । श्रात्मा नित्य है, क्योंकि वह अमूर्त है; जो अमूर्त होता है वह नित्य होता है, जैसे आकाश । श्रात्मा अमूत्ते हे अतएव वह नित्य है। (३) प्रात्मा यदि नित्य है तो सदैव एक रूप रहना चाहिए । कभी मनुष्य, कभी देव, नरक, पशु-पक्षी आदि विभिन्न अवस्थाओं में वह क्यों प्राप्त होता है ? नित्य मानने से जो श्रात्मा जिस पर्याय में है वह उसी पर्याय में रहेगा। जो दु:खी है वह सदा दुःखी रहेगा और जो सुखी है वह सदा सुखी रहेगा। ऐसी अवस्था में व्रत, अनुष्टान, तपश्चर्या श्रादि क्रियाएँ व्यर्थ हो जाएँगी। इस शंका का समाधान करने के लिए उत्तरार्ध में कहा गया है कि मिथ्यात्व, अविरति, कपाय आदि कारणों से प्रात्मा बन्ध में कर्मों का बन्ध होता है और उस कर्म वन्ध के कारण ही श्रात्मा विभिन्न पर्याय परम्परा का अनुभव करती है। कर्म वन्ध ही संसार के अर्थात् नरकगति, तिर्यञ्चगति, देवगति और मनुष्यगति के भ्रमण का कारण हैं। शंका-श्रात्मा यदि इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता तो मन भी श्रात्मा को जानने में समर्थ नहीं हो सकता । क्योंकि इन्द्रियों द्वारा गृहीत वस्तु ही मन के द्वारा जानी जा सकती है। जिस पदार्थ में इन्द्रियों की प्रवृत्ति नहीं होती उस में मन भी प्रवृत्त नहीं हो सकता । इस अवस्था में श्रात्मा को जानने का कोई साधन हो हमारे पास नहीं है, फिर श्रात्मा के अस्तित्व पर विश्वास करने का क्या उपाय है ? समाधान-जो वस्तु इन्द्रियों और मन द्वारा नहीं जानी जाती उसका अस्तित्व अगर अस्वीकार कर दिया जाय तो संसार के बहुत से व्यापार गड्बड़ में पड़ जाएँग । यही नहीं, बल्कि शंकाकार का अस्तित्व भी सिद्ध नहीं हो सकेगा। कोई भी व्यक्ति अपनी दो-चार पीढ़ियों के पूर्वजो से पहले के पूर्वजों को इन्द्रियों द्वारा ग्रहरण नहीं करता, फिर भी क्या उनके अस्तित्व से इन्कार किया जा सकता है ?
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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