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________________ तेरहवां अध्याय ४८३ अतएव सुख की कामना करने वालों का यह परम कर्तव्य है कि वे को मान, माया और लोभ रूप कषायों पर विजय पाने का उत्तरोत्तर प्रयास करते जा अन्तःकरण की वृत्तियों में उज्ज्वलता उत्पन्न करें । क्षमा, नम्रता, सरलता अ उदारता का अभ्यास करें। इन सात्विक वृत्तियों से जीवन आनन्दमय, प्रमोदम संतोषमय और शान्तिमय बनता है । जीवन का वास्तविक लाभ लेने के लिए वृत्तियों की वृद्धि होना अत्यावश्यक है। मूलः-उवसमेण हणे कोहं, माणं मदवया जिणे । मायमजवभावेण, लोभं संतोसत्रो जिणे ॥१०॥ . छायाः-उपशमेन हन्यात क्रोध, मानं मार्दवेन जयेत्। मायामार्जव भावेन, लोभं सन्तोपतो जयेत् ॥ १०॥ शब्दार्थः--उपशम से क्रोध का नाश करना चाहिए । नम्रता से मान को जी चाहिए। आजैव से माया को और सन्तोष से लोभ को जीतना चाहिए। भाष्यः-शास्त्रकार ने पूर्व गाथा में कषायों से होने वाली हानियों का दिदर्श करा कर प्रस्तुत गाथा में कषाय-विजय के उपायों का निर्देश किया है। क्रोध को उपशम से अर्थात् शान्ति से जीतना चाहिए । जब क्रोध के आवे से संताप की उत्पत्ति हो जाती है तब शांति के सिवाय उस संताप को निवा - करने का अन्य उपाय नहीं हो सकता। क्रोध को जीतने के लिए क्रोध के कारणों बचना चाहिए, क्रोध के दुष्परिणामों पर विचार करना चाहिए, क्षमा के लाभों विचारना चाहिए और इन सब के द्वारा हृदय में उपशमवृत्ति ऐसी दृढ़ बना लेन चाहिए कि क्रोध की उत्पत्ति के लिए अवकाश ही न रहे। उपशम के समीप क्रोध का संताप ठहर नहीं सकता। जल से परिपूर्ण सरोव में जैसे सूर्य का संताप कष्टकारक नहीं हो सकता, अथवा जल में जिस प्रकार . उत्पन्न नहीं हो सकती, उसी प्रकार उपशम रूप सलिल जिस हृदय-सरोवर में भर होगा उसमें क्रोध की अग्नि कदापि उत्पन्न न हो सकेगी। मार्दव गुण के द्वारा मान का मद-भंजन करना चाहिए। मृदुता, या कोमलत को मार्दव कहते हैं। अभिमान की कठोरता को नष्ट करने के लिए मार्दव ही एकम सफल शस्त्र है । पहले बतलाया जा चुका है कि अभिमान के प्रवल उदय से मनु अन्धा बन जाता है। वह अपनी वास्तविक स्थिति को नहीं सोचता और न दूसरे की सची स्थिति का ही विचार करता है। अभिमानी पुरुष अपने में असत् या ना मात्र को सत् कतिपय गुणों को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर सोचता है और दूसरों. विशाल गुणों को अत्यन्त अल्प मात्रा में समझता है, या उनका अपलाप दीक डालता है। अत्यन्त परिमित और क्षुद्र वृद्धि होने पर भी अभिमानी अपने आपके सर्वक्ष की कोटि में रख देगा और अत्यन्त विशाल वुद्धिशाली होने पर भी दूसरों को जड़ या मूढ़ समझेगा ! अभिमानी अपनी बुद्धि के मद में चूर होकर अपने साम
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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