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________________ [ ४८२ ] कषाय, वन पाना चाहता है तो उसे अपने कषायों पर विजय पानी चाहिए। जिसने अपने अन्तः करण में कषायों का विष नहीं फैलने दिया, वह मुक्ति के समीप पहुंच गया । मूल :- कोहो पीई पणासेइ, माणो विषयनासो । माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सव्वविणासणी ॥॥ छाया:- क्रोधः प्रांति प्रणाशयति, मानो विनयनाशनः । माया मित्राणि नाशयति, लोभः सर्वविनाशनः ॥ ६ ॥ शब्दार्थ:- क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, मान विनय का नाश करता हैं, माया मित्रता का नाश करती है और लोभ सभी कुछ नष्ट कर देता है । भाष्यः-गाथा का भाव सुगम और स्पष्ट है । क्रोध ऐसी अनि है जिसकी लफ्टों में प्रीति का लहराता हुआ पौधा जीवित नहीं रह सकता है । क्रोध की लपटें लगते ही वह मुरझाकर फिर भस्म हो जाता है । इसी प्रकार मान कषाय के कारण प्राणी में ऐसी कठोरता एवं उद्दंडता का उद्भव होता है जिससे उसकी विनम्रता तत्काल नष्ट हो जाती हूँ । जहां निष्कपटता नहीं है वहां मैत्री नहीं रह सकती । स्वार्थ या कपट की घोर दुर्गंध में मैत्री की पावन सुरभि तत्काल प्रभावहीन हो जाती है । मायाचार मैत्री का कलंक है और वह जहां होगा वहां मैत्री घार शत्रुता के रूप में परिणत हुए बिना नहीं रह सकेगी। मायावी मनुष्य अपने कष्टाचार की कैंची से अपने समस्त सद्गुणों को काट फेंकता है । उसके अन्तःकरण की कालिमा में उसके अन्यान्य उज्ज्वल गुण डूब जाते हैं । इसी प्रकार लोभ मानय जीवन को निरर्थक बना डालता है। लोभी पुरुष, लोभ के वश होकर अपने समस्त सांसारिक सुखों को तिलांजलि दे देता है और सिर्फ अर्थ-चिन्ता में ही निमग्न रहता है। लोभी जीव अर्थ का स्वामी नहीं है, बल्कि अर्थ ही उसका स्वामी है | वह अर्थ का उपभोग नहीं कर सकता किन्तु अर्थ ही उसका उपभोग करता है । वह जितना उपार्जन करता है उससे कई गुना उपार्जन करने की लालसा रखता है, इसलिए उपार्जित धन के द्वारा होने वाली प्रसन्नता, उपार्जन की तीव्र लालसा से श्राच्छादित हो जाती है और उपार्जित धन उसे श्रानन्ददायक नहीं होता । वास्तव में लोभी मनुष्य अत्यन्त करुणा का पात्र है । वह दुःखी मानव इस लोक में जैसे सुख के स्पर्श से भी शून्य होता है उसी प्रकार आगामी भवमें भी । वह न यहां का रहता है, न वहां का रहता है । मृत्यु - काल में, जब समस्त उपार्जित धन . के सम्पूर्ण त्याग का अवसर अनिवार्य रूप से श्रा जाता है तब उसकी कैसी दयनीय दशा होती है ! वह घोर ममता के साथ मर कर नरक का अतिथि बनता हैं ! इसी लिए सूत्रकार कहते हैं-' लोहो सव्वावणासो' अर्थात् लोभ सर्वनाश करने वाला हैं । इस लोक और परलोक दोनों को बिगाड़ने वाला है । लोभ मनुष्य को किंचित भी सुख नहीं देता ।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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