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________________ ग्यारहवां अध्याय - ४४४ असंख्य पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं, उनका वर्गीकरण किया जाय तो उन समस्त पदार्थों के दो ही वर्ग बन सकते हैं- एक जड़ और दूसरा चेतन । कीट, पतंग, पशु, पक्षी, देव, नारकी मनुष्य आदि जीव चेतन वर्ग में समाविष्ट होते हैं और उनसे पृथक् रहने वाले अन्य समस्त पदार्थ अचेतन-जड़-में सम्मिलित हो जाते हैं। इन दो मूल वस्तुओं के अतिरिक्त तीसरी वस्तु कहीं भी उपलब्ध नहीं होती। . उक्त दोनों जड़ और चेतन वस्तुओं में विविध प्रकार के रूपान्तर अनेक कारणों से होते रहते हैं। एक जड़ पदार्थ, जब दूसरे जड़ पदार्थ के साथ मिलता है, तब दोनों में या दोनों में से किसी एक में रूपान्नर हो जाता है । इसी प्रकार जड़ पदार्थों के संयोग से चेतन में रूपान्तर हो जाता है । कपास के. वीज से कपास का पौधा उत्पन्न होता है । वह प्राकृतिक गर्मी, सर्दी, तथा पानी और मिट्टी आदि के संयोग स अनेक अवस्थाएँ धारण करता हुआ फलों से सुशोभित हो जाता है। मनुष्य उसे फलों में से कपास चुगता है । कपास को ऑटकर रुई वनाता है। रुई कातकर उससे सुत बनाता है और फिर उससे वस्त्र तैयार कर लेता है । इस प्रकार अनेक रूपान्तर होने के पश्चात् बना हुआ वस्त्र कुछ समय में चीथड़ा हो जाता है और फिर उससे कागज आदि अनेक वस्तुएँ निर्मित हो जाती हैं। कागज यदि अग्नि के अर्पण कर दिया जाय तो उससे रास्त्र बन जाएगी और वह राख मिट्टी के बर्तन आदि अनेक रूपों में परिणत हो सकती है । इस प्रकार कपास के वीज की पर्याय परम्परा चलती रहेगी। अनन्त काल तक चलती जायगी। यह एक उदाहरण है। इसी प्रकार अन्य समस्त वस्तुएँ परिवर्तनशील हैं और उनकी पर्यायों की परम्परा भी अनन्त काल तक चालू रहती है । पर्याय-परम्परा जैसे अनन्त लमय तक जारी रहने वाली है उसी प्रकार वह आज या कल से जारी नहीं है, बल्कि अनादिकाल से चली आ रही है । उसका कभी आरंभ नहीं होता, फभी अंत नहीं होता। ऊपर जिन पर्यायों के परिवर्तन का उल्लेख किया गया है वे सब स्थूल पर्याय है-ऐसी स्थूल जो हमारी दृष्टि में आ सकती है। एक स्थूल पर्याय से दूसरी स्थूल पर्याय तक के समय में अनेकानेक सूक्ष्म पर्यायों भी होती है, जो वस्तु की श्राकृति बदलने में समर्थ नहीं होती और केवल एक क्षण भर स्थिर रहती है। उन्हें हम देख नहीं पात, परन्तु उनकी कल्पना अवश्य कर सकते हैं। . इन सब पर्यायों के परिवर्तन होते रहने पर भी हम स्पष्ट रूप से उनमें रहने चाली अनुगत सत्ता देखते हैं। अर्थात् भाति में विशति हो जाने पर भी मूल वस्तु विद्यमान रहती है, उसका विनाश कदापि नहीं होता। जैन परिभाषा में इस अनुगत सत्ता को द्रव्य कहते हैं। अपर विश्व की समस्त वस्तुओं को दो वर्गों में बांटा गया था, उन्हीं को फिचित् विस्तार से छह भेदों में विभक्त किया जाता है और घदी पट् दव्य कहलाती हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि पद् द्रव्य ही लोक हैं। जीव, पुदगल,
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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