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________________ [ ४४८ ] . . भाषा-स्वरूप वर्णन वतलाते हैं, किन्तु वे तत्त्व के ज्ञाता नहीं है-वास्तविकता को नहीं जानते । वास्तविकता यह है कि लोक कभी विनाशी नहीं है। भाष्य-अनन्तर गाथाओं में देववादी, ब्रह्मवादी, ईश्वरवादी, प्रधानवादी, स्व. भाववादी, कालवादी, नियतिवादी, यहच्छावादी. स्वयंभूवादी, और अण्डवादी, लोगों की कल्पनाओं का दिद्गदर्शन कराया जा चुका है और उन कल्पनाओं की संक्षिप्त समा. लोचना भी की जा चुकी है। उसले यह स्पष्ट हो चुका है। कि इन वादियों को सृष्टि संबंधि. वास्तविकता का शान नहीं है। पूर्वोक्त सभी वादी वेद के अनुयायी हैं, वेद को प्रमाण मानते हुए अपने सिद्धान्तो का कथन करते हैं। फिर भी उनमें इतना अधिक मतभेद है। यह मतभेद हों इस बात को प्रमाणित करता है कि उनमें से किसी को सवाई का पता नहीं चला है और जिसके जी में जो वात जंच गई, उसने वही बात मान ली है। अन्यथा इतने अधिक मतभेद न होते और आपस में ये लोग एक दूसरे के मत पर आक्रमण न करते । सृष्टि से पूर्व कौन-सा तत्व.था, इस संबंध में भी इनमें एक मत नहीं है और सष्टि रचना के संबंध में भी यह सब विभिन्न मत प्रदार्शत करते हैं। कोई कहता है .. . 'सद्धा इदमन भालित् ।। ..... अर्थात् सृष्टि से पहले यह जगत् असत् रूप था। . . . इसके विरुद्ध दूसरा कहता है- ... ....... : सदेव सौम्येदमन श्रासीत् ।' . . अर्थात्-हे सौम्य ! यह जगत् पहले सत रूप था । किसी का कहना है कि सृष्टि से पहले आकाश तत्व था-'अाकाश-परायणम् ।' तो कोई कहता है _ 'नैवेद किञ्चनाय श्रासीत् , मृत्युनैवेदमावृतमासीत् ।' . . अर्थात् सृष्टि से पहले कुछभी नहीं था, मृत्यु से व्याप्त था-सब कुछ प्रलय के समय नष्ट हो चुका था। ...:. इस प्रकार सृष्टि से पहले क्या था, इस संबंध में जैसे अनेक कल्पनाएँ की गई हैं, उसी प्रकार सृष्टि के प्रारंभ के विषय में भी अनेक कल्पना की गई हैं। पर यहां उनका वर्णन करने से अधिक ग्रंथ-विस्तार होगा । कहने का तात्पर्य यह है कि यह सब मतभेद सूचित करते हैं कि सचाई किसी ने भी नहीं पाई। सभी ने श्रपनी कल्पना की दौड़ लगाई है और जिसे जला जान पड़ा, उसने वैसा ही बखान कर दिया है। इसी लिए सूत्रकार कहते हैं कि-'तत्तं ते ण विजाणंति।' अर्थात वे सब लोग तत्व की बात नहीं जानते। तत्व की बात क्या है ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि तत्व यह है कि लोक कभी नष्ट नहीं होता। जद और चेतन का समूह लोक कहलाता है । संसार में जो अपरिमित- ... R 1 a . . . . . . .. . . . . .
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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