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________________ R ग्यारहवां अध्याय [ ४३३ । कोई भी वस्तु नहीं थी-संसार सब पदार्थों से शून्य था. तब ब्रह्मा ने पानी में एक अंडा उत्पन्न किया। अंडा धीरे-धीरे बढ़ता हुआ बीच में से फट गया । उसके दो माग हो गये । एक भारा से ऊर्ध्वलोक बन गया और दूसरे भाग से अधोलोक की उत्पत्ति हो गई । इसके पश्चात् दोनों भागों में प्रजा की उत्पत्ति हुई। इसी प्रकार पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, समुद्र, नदी और पर्वत आदि उत्पन्न हुए। कहा भी है नासीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतय॑मविज्ञेयं, प्रसुप्तमिव सर्वतः ।। अर्थात्-सृष्टि से पहले यह जगत अन्धकार रूप, अशात, और लक्षणहीन था। वह विचार से बाहर और अज्ञेय था, चारों और से सोया हुआ-सा-शान्त था। इस प्रकार के जगत् में ब्रह्मा ने अंडे आदि के क्रम से सृष्टि की रचना की। इस प्रकार सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में नाना लोग नाना प्रकार की कल्पनाएँ करते हैं और वे वास्तविकता से शून्य होने के कारण मिथ्या रूप हैं। उनकी मिथ्यारूपता पर यहां संक्षेप में प्रकाश डाला जाता है। जो लोग देव या देवों द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति होना बतलाते हैं उनसे पूछना चाहिए कि देव पहले स्वयं उत्पन्न होकर जगत् का निर्माण करता है या विना उत्पन्न हुए ही जगत् को उत्पन्न करता है ? स्वयं उत्पन्न होने से पहले तो वह जगत् उत्पन्न नहीं कर सकता, क्योंकि उस समय वह स्वयं असत् है-अविद्यमान रूप है। • यदि यह कहा जाय कि पहले देव उत्पन्न हो चुका, तब उसने सृष्टि रची, तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि देव किसी प्रकार उत्पन्न हुश्रा-वह अपने आपसे उत्पन्न हो गया या किस अन्य कारण से उत्पन्न हुआ ? देव यदि विना किसी कारण के स्वयं उत्पन्न हो सकता है तो लोक भी अपने आप क्यों नहीं उत्पन्न हो सकता ? देव को उत्पन्न करने वाले किली कर्ता की आवश्यकता नहीं है तो लोक को उत्पत्र करने वाले कर्ता की भी क्या आवश्यकता है ? देव यदि किसी अन्य कारण से उत्पन्न होता है तो वह देव को उत्पन्न करने वाला कारण कहां से आया ? जगत् तो था नहीं, फिर वह कारण क्या था ? इसके अतिरिक्त वह कारण भी अपने आपसे उत्पन्न हुश्रा या किसी अन्य कारण से ? अपने श्राप उत्पन्न होने की बात तो निर्मल है, यह चताया जा चुका है। अतएव उसे भी किसी अन्य कारण से उत्पन्न होने वाला मानना पड़ेगा। तो देव को उत्पन्न करने वाला कारण, दूसरे कारण से उत्पन्न हुश्रा है, यह निर्णय हुआ। लेकिन बात यही समाप्त नहीं होती । उस कारण के कारण के विषय में भी बद्दी प्रश्न उपस्थित होता है। अर्थात् वह दूसरा कारण भी स्वयं उत्पन्न हश्रा या किसी अन्य कारण से उत्पन्न हुशा ? इस प्रकार कारणों की कल्पना करते-करते कहीं अन्त ही नहीं आएगा और देव की उत्पत्ति का ही समय नहीं पा सकेगा।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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