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________________ [ ४०२ ] प्रमाद - परिहार प्रमादी प्राणी के लिए समझनी चाहिए । जव चार ज्ञान के धनी गौतम जैसे महात्मा को भी प्रमाद - परिहार की प्रेरणा की गई है तो अन्य विषयासक्त जीवों को, जो निरन्तर प्रमत्त दशा में ही विचरते हैं, प्रमाद परित्याग की कितनी श्रावश्यकता है, यह वात प्रत्येक विवेकशील समझ सकता है । भव्यजनों ! प्रमाद अत्यन्त प्रबल रिपु है । वह श्रात्मा को मूर्छित करके उसकी नाना प्रकार की दुर्दशा कर रहा है । प्रमाद के पाश में पड़ा हुआ प्राणी चेतन होते हुए भी अचेतन-सा ज्ञान शून्य बन गया है । मनुष्य भव में ही ऐसा अवसर है कि उसे दूर कर अपना श्रभिमत्त सिद्ध किया जा सकता है । अतएव हे श्रात्मन् ! जागृत हो । भाव-निद्रा का त्याग कर । अपने स्वरूप की ओर निहार । एक भी क्षण के लिए प्रमाद को समीप न आने दो। इसी में परम कल्याण है, इसी में परम सुख है और इसी में अनमोल मनुष्यजीवन की सार्थकता है । निर्ग्रन्थ- प्रवचन- दसवां अध्याय समाप्तम्
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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