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________________ दलवां अध्याय [ ४०१ । मूल:-अकलेवरसेणिमासिया, सिद्धिं गोयम ! लोयं गच्छसि । " खेमं च सिवं अणुत्तरं, समयं गोयम ! मा पमायए २६ छाया:-अकलेचरश्रेणिमुत्सृत्य, सिद्धिं गौतम ! लोकं गच्छसि । क्षेमं च शिवसनुत्तरं, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ २६ ॥ शब्दार्थ--हे गौतम् ! यह आत्मा अशरीर अवस्था प्राप्त करके, कल्याण रूप अनुतर और निरूपद्रव सिद्धि क्षेत्र को प्राप्त करता है, अतएव समय मात्र भी प्रमाद न करो। भाष्यः-संसार-सागर के किनारे श्राकर जीव यदि कुछ और आगे बढ़ता है तो उसे सिद्धि लोक की प्राप्ति होती है। ऊर्ध्वलोक में सार्थसिद्ध नामक स्वर्ग से १२ योजन ऊपर, पैंतालीस लाख योजन विस्तार वाली, गोलाकार, एक करोड़ व्यालीस लाख तीस हजार दो सो उनंचाल । १४२३०२४६ ) योजन की परिधिवाली, शिद्ध-शिला है । यह लोकाकाश का अन्तिम भाग है। इसी भाग को सिद्धी-लोक, ३ सुक्ति सिद्धालय, मुक्तालय, लोकान अथवा ईषत् प्रागभार पृथ्वी कहते हैं । इस शिद्ध शिला के, एक योजन ऊपर, अनन्तानन्त सिद्ध शात्मा विराजमान हैं। यह सिद्धि लोक क्षेमरूप है, शिव रूप है और अनुत्तर है। अर्थात् यहां विराजमान समस्त आत्माओं को अनन्त अात्मिक सुख प्राप्त है, उन्हें किसी प्रकार की वाधा नहीं है, किसी प्रकार की व्याकुलता नहीं है, सभी प्राप्तव्य प्राप्त हो चुका है। यह सिद्धि क्षेत्र सर्वोपरि है इससे ऊपर लोकाकाश का अन्त हो जाने स किसी जीव का गमन नहीं होता है भाव की अपेक्षा भी यह अनुत्तर है, अर्थात् सर्व श्रेष्ठ हैं। इस लोक में पूर्ण रूपेण विशुद्ध, निर्मल, निरंजन, निराकार अात्माओं का ही निवास मोक्ष का विस्तृत स्वरूप प्रागे मोक्ष के अध्ययन में निरूपण किया जायगा। यह श्रात्मा की स्वासाविक, स्वरूपमय, शुद्ध अवस्था है। अप्रमत्त जीवों को ही इस लोक की प्राप्ति होती है। चौदहवे गुणस्थानं तक शरीर विद्यमान रहता है। उसके पश्चात् आत्मा शरीर से पृथक होकर-शरीर अवस्था प्राप्त करके इसलोक की प्राप्ति करता है । इस परमानन्दमय लोक को प्राप्त करना ही प्रत्येक मुमुनु का ध्येय है यही योगियों का परम लक्ष्य है। संयम की साधना का यही अंतिम परिणाम है । यही आत्मा का सर्वोत्कृष्ट घासस्थान है। इसकी प्राप्ति हो जाने के पश्चात् श्रात्मा कृतकृत्य हो जाता है। फिर उसे कुछ भी करना शेप नहीं रहता। श्रतएर हे गौतम् ! इसलोक को प्राप्त करने में एक भी समय का प्रमाद न करो। प्रस्तुत अध्ययन में यद्यपि भगवान् वर्द्धमान स्वामी ने गौतम को संबोधन फरके प्रमाद के परिहार की ओजस्वी और प्रभावपूर्ण प्रेरणा की है, तथापि यह प्रत्येक
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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