SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 411
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नवां अध्याय ३५५. ] चाहिए । दिन में सूर्य के ताप का सेवन करना चाहिए । रात्रि में नग्न रहना चाहिए। रात्रि में लीधा या एक ही करवट से सोना चाहिए या तो चित्त ही सोवे करवट नं ले । अथवा जिस करवट सोवे उसी से सोता. रहे--बदले नहीं। सामर्थ्य विशेष हो तो कायोत्सर्ग करके बैठे। ___(8) नवमी प्रतिमा का अनुष्ठान पाठवीं के समान है । विशेषता यह है कि रात्रि में शयन न करे, दंडासन, लगुडासन या उत्कृट श्रासन लगा कर रात्रि व्यतीत करे । दंड की तरह सीधा खड़ा रहना दंडासन है। पैर की एड़ी और मस्तक का शिखा स्थान पृथ्वी पर लगा कर समस्त शरीर धनुष की भांति अधर रखना लंगुडासन है । दोनों घुटनों के मध्य में मस्तक झुका कर ठहरना उत्कृट श्रासन है। (१०) दसवी प्रतिमा (पडिमा) झी आठवीं की तरह है। इसमें विशेषता यह है कि समस्त रात्रि गोदुहासन, वीरासन अथवा अस्वखुजासन ले स्थित होकर व्यतीत करना चाहिए । गाय दुहने के लिए जिस आसन से दुहने वाला बैठता है उसे गोबुहासन कहते हैं। पाट पर चैठकर दोनों पैर जमीन में लगा लिए जाएँ और पाट हटा लेने पर उसी प्रकार अधर वैठा रहना वीरासन है। सिर दीचे रखना और पैर ऊपर रखना अस्वखुजालन कहलाता है। (१९) ग्यारहवीं पडिमा में बेला (षष्ठभक्त) करना चाहिए, दूसरे दिन ग्राम से बाहर आठ महर तक ( रात-दिन-चौबीस घंटे) कायोत्सर्ग करके खड़ा रहना चाहिए। . (१२) बारहवीं पडिमा में तेला करना चाहिए । तीसरे दिन श्मशान में एक ही वस्तु पर अचल दृष्टि स्थापित कर कायोत्सर्ग करना चाहिए । विशिष्ट संयम की साधना के लिए तथा कायस्लेश के लिए साधु को इन शरह पडिमात्रों के प्राचरण का विधान किया गया है । इनके अनुष्ठान के लिए उन सामर्थ्य की भावश्यकता होती है। श्राधुनिक समय में शरीर-संहनन की निर्चलता के कारण पडिमाओं का अनुष्ठान्द नहीं हो सकता। करणसत्तरि के सत्तर भेद हैं । यथा पिंडविसोही समिई, भावना पडिमा इंदिय निरगहो या * पडिलेहणगुत्तीसो, अभिग्गहं चेक करणं तु ॥ अर्थात् पिएडविशुद्धि, समिति, भावना, प्रतिमा, इन्द्रियनिग्रह, प्रतिलेखना, गुति और अभिग्रह, यह स्व करण के भेद हैं। पिण्डषिशुद्धि के चार भेद हैं, समितियां पांच, भावनाएँ चारह है, प्रतिमाएं चारह, इन्द्रिय नियह पांच, प्रतिलेखना पच्चीस, गुप्ति तीन और अभिग्रह चार हैं। इन सबका योग सत्तर होता है। (१) श्राहार (२) वा (३) पान और (४) स्थानक, निदाप ही काम में लानासदोए का परित्याग करना चार प्रकार की पिण्ड शृद्धि कहलाती है। पांच समितियों
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy