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________________ [ ३५० ] . . - साधु-धर्म निरूपण, करके उनकी विशेष प्राप्ति के लिए कटिबद्ध होना चाहिए । इसी प्रकार अगर कोई पुरुष निन्दा आदि करे तो साधु को द्वेष नहीं करना चाहिए। ऐसे समय में उसे निन्दा के विषयभूत दोष पर विचार करना चाहिए कि-'वास्तव में निन्दक के योग्य. दोष मुझमें है या नहीं ? यदि है तो निन्दक व्यक्ति सत्य ही कहता है। मुझे उस पर क्रोध न करके उसका ऋणी होना चाहिए कि उसने वह अवगुण त्यांगने का मुझे अवसर प्रदान किया है। अगर निन्दनीय दोष न हो तो सोचना चाहिए कि, मुझ में जब दोष नहीं है तो किसी के कहने ले मेरी श्रात्मा का क्या बिगाड़ होगा ? निन्दक ही अपना अहित करके अशुभ कर्मों का संचय कर रहा है। बेचारा मेरे निमित्त से पाप में डूब रहा है, अतएव वह क्रोध का पात्र न होकर द्या. का पात्र है। अथवा-- मैने कोई अशुभ कर्म पहले उपार्जन किया होगा जिसके उदय से मुझे निन्दा का पात्र चनना पड़ा है । वास्तव में तो मेरा कर्म ही मेरी निन्दा करता है, व्यक्ति तो साधारण निमित्त मात्र है। मैं उस पर क्यों क्रोध या द्वेष करूं? द्वेष श्रादि करने से तो आगे के लिए फिर अशुभ कर्म का बंध होगा! इसके अतिरिक्त प्रशंसा और निन्दा की वास्तविकता पर गहरा विचार करना चाहिए । प्रशंसा एक प्रकार की अनुकूल परीषह है, निन्दा प्रतिकूल परीषह है। प्रतिकूल परीषह की अपेक्षा अनुकूल परिषह को जीतना अधिक कठिन होता है अंतएव निन्दा की अपेक्षा प्रशंसा को अधिक भयंकर समझना चाहिए और उससे बचने का सदैव प्रयास करना चाहिए । निन्दा और प्रशंसा होने पर समान भाव धारण करके साधु को अपनी.साधना की ओर ही ध्यान रखना चाहिए। . . संयम को दुषित करने वाले समस्त अनर्थों का, अनाचीर्ण आदि का, त्याग करना चाहिए । श्रनाचीर्ण क्या है ? ‘जिन बातों का तीर्थकरों ने तथा प्राचीन मुमुक्षु महर्षियों ने कभी आचरण नहीं किया है, उन्हें अनाचीर्ण कहते हैं । शास्त्रों में अनाचीर्ण ५२ ( बावन ) बताये गये हैं। वे इस प्रकार हैं (१) प्रोद्देशिक-आहार, पानी, पात्र आदि ग्रहण करना। . (२) क्रीतकृत-साधु के लिए मोल देकर खरीदी हुई वस्तु देने पर उसे लेना। (३) नित्यपिण्ड-विशेष कारण के बिना एक ही घर से नित्य श्राहार-पानी आदि ग्रहण करना। (४) अभ्याहत-उपाश्रय में या जहां साधु स्थित हों वहां श्राहार आदि लाकर श्रावक दे और उसे ग्रहण करना। (५) रात्रिभक्त-अन्न; पानी, खाद्य, खाद्य आदि किसी भी प्रकार के आहार . का रात्रि में उपभोग करना। (६) स्नान-हाथ पैर आदि धोना देश स्नान कहलाता है और समस्त शरीर का प्रक्षालन करना सर्व स्नान है । (७) गंध-ईत्र, चन्दन आदि सुगंधमय पदार्थ विना विशेष शारीरिक कारण __ . के लगाना।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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