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________________ नववा अध्याय [ ३४६ ] यही आशय प्रकट करने के लिए सूत्रकार ने प्रज्ञा आदि के अभिमानी को 'बालप्रज्ञ' अर्थात् अज्ञान बताया है । इसी प्रकार जो साधु श्राहार, पानी, वस्त्र, पात्र, आदि के लाभ का अभिमान `करता है वह वास्तविक लाभ से सदा वंचित रहता है। पौद्गलिक लाभ में उलझा हुआ वह साधु आत्मा के स्वाभाविक गुणों के लाभ की ओर आकृष्ट नहीं होता और इस कारण वह घोर अलाभ का पात्र बनता है । अतएव साधुको यह विचारना चाहिए कि मैं अपने सहज चिदानन्दमय स्वभाव के लाभ के लिए प्रयत्न कर रहा हूँ । जब तक उस अपूर्व, अद्भुत एवं अलौकिक स्वभाव की प्राप्ति नहीं हुई तब तक मुझे किश्चित् मात्र भी लाभ नहीं हुआ है। भोजन पान का लाभ तो वास्तव में लाभ है, क्यों कि वह प्रमादजनक तथा तपस्या, ध्यान आदि में विघ्न करना है। भोजन आदि का अलाभ वास्तव में लाभ है, क्योंकि उससे अनायास ही तप एवं संयम आदि की साधना हो जाती है । इस प्रकार विचार करने से साधु लाभ का अभिमान नहीं करता और लाभ होने पर विषाद नहीं करता है । श्रतएव ऐसा विचार कर समाधि प्राप्त करना चाहिए। मूल:- न पूयणं चैव सिलोयकामी, पियमप्पियं कस्सइ नो करेजा सव्वे पट्टे परिवज्जयंते, असा उले य अक्साइ भिक्खू १६ छाया:-न पूजनं चैव श्लोककामी, प्रियमप्रियं कस्यापि नो कुर्यात् । सर्वानर्थान् परिवर्जयन्, अनाकुलश्च कषायी भिक्षुः ॥ १६ ॥ शब्दार्थः--साधु न अपने सत्कार की आकांक्षा करे और न कीर्त्ति की कामना करे । न किसी से राग करे और न द्वेष करे। सभी अनर्थों का त्याग करता हुआ, निराकुल और निष्कषाय होकर विचरे । भाग्यः - साधु प्रवचन करते समय यह इच्छा न करे कि मैं उत्तम उपदेश देता हूं तो श्रोता श्रावक श्रेष्ठ आहार आदि से मेरा सत्कार करें अथवा मेरी प्रशंसा करें । जिसके अन्तःकरण में ख्याति, लाभ, पूजा आदि की चाहना होती है, उसका हृदय शुद्ध नहीं हो सकता । श्रतः शुद्धता पूर्वक संयम-निर्वाह के लिए इन सब कामनाओं का परित्याग करना आवश्यक है । जिसकी दृष्टि इस लोक संबंधी लाभ पर ही केन्द्रित करती है, वह पारलौकिक कल्याण की ओर ध्यान नहीं दे पाता । पर लोक संबंधी कल्याण की प्राप्ति के लिए इस लोक के लाभों से सर्वथा निरपेक्ष रहना चाहिए । इसी प्रकार साधु किसी पर राग-द्वेष न करे। यदि कोई पुरुष साधु की प्रशंसा करता हो तो उसे अपनी प्रशंसा न समझ कर भगत्प्ररूपित संयम की प्रशंसा समझे अगर कोई साधु के विद्याविभव की, वाक्कौशल की या अनासक्ति की प्रशंसा करे तो उसे प्रशंसक पर राग नहीं करना चाहिए वरन् अपने श्रज्ञान आदि का विचार
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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