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________________ नवां अध्याय - [ ३२३ । निम्रन्थ-मुनि प्राणी-वध का सर्वथा त्याग करते हैं, क्योंकि वह घोर है-रौद्र रूप है । वह घोर इसलिए है कि प्रत्येक प्राणी जीवित रहने का अभिलाषी है। प्रत्येक जिन्दा रहना चाहता है। कोई भी प्राणी मृत्यु की इच्छा नहीं करता। ___ जब प्रत्येक व्यक्ति जीवित रहना चाहता है, तो उसे जीवित न रहने देना उस्ल के प्रति घोर अन्याय है । जब कोई भी प्राणी मरना नहीं चाहता तो बलात्कार से उसे . मौत के मुँह में ढकेलना भी उसके प्रति तीन अत्याचार है। संसार अनादिकाल से विद्यमान है । इस भूमि का निर्माण किसी व्यक्ति ने नहीं किया है। समस्त भूमण्डल और भूमण्डल पर निसर्ग से उत्पन्न होने वाली समस्त वस्तुएं सर्व साधारण की लस्पति हैं। उन पर किसी एक या अनेक व्यक्तियों का आधिपत्य होना अप्राकृतिक है। अगर वह आधिपत्य अन्य प्राणीवर्ग के जीवननिर्वाह में या निवारत में बाधा डालता है, तब वह और पाप का रूप धारण कर लेता है। तात्पर्य यह है कि जगत् जीव मात्र का निवाल-स्थान है और उसमें उत्पन्न होने वाले समस्त साधनों पर जीक मान का समान अधिकार है । जैसे एक पिता के बार पुत्रों का पिता की सम्पत्ति. पर समान अधिकार होता है, उसमें बड़े-छोटे, सबल-निर्बल श्रादि के भेद से कोई विषमता नहीं पाती, उसी प्रकार प्राणी मात्र को जगत् के पदार्थों पर समान अधिकार प्राप्त है। सबल होने के कारण किसी को अधिक और निर्मल होने से किसी को न्यून अधिकार नहीं है। अमर प्राणी न्याय-नीति को आधार मानकर चले तो उसे इस सहज और मुलंगत सिद्धान्त का उल्लंघन नहीं करना चाहिए । इस नैतिक मर्यादा में स्वाभाविकत्ता और सुव्यवस्था का मूल है। अगर नीति की यह मर्यादा स्वार्थ से प्रेरित होकर प्राणी ने भंग कर दी है। एक व्यक्ति स्वयं जीवित रहना चाहता है, पर दूसरे के जीवित रहने का अधिकार स्वीकार नहीं करना चाहता। एक समाज अपना अस्तित्व चाहता है किन्तु दूसरे समाज का अस्तित्व नहीं चाहता। एक राष्ट्र सुख और शांति के साथ अपनी सत्ता स्थापित रखना चाहता है, पर दूसरे राष्ट्र की सत्ता की उपेक्षा करता है। - इतना ही होता तो गनीमत थी । एक व्यक्ति, समाज या राष्ट्र अगर दूसरे व्याक्ति, समाज या राष्ट्र का लदायक न होता, उसके प्रति उदालीन रहता तो भी खैर थी। पर दुनिया एक कदम आगे बढ़ गई है । एक व्यक्ति दूसरे के अधिकार को अस्वीकार करके ही संतुष्ट नहीं है, पर उसके अधिकार को हड़प कर, उसका हिस्सा स्वयं हस्तगत करके, उसके जीवन का भोग लेकर जीवित रहना चाहता है। इसी प्रकार एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र का भाग स्वयं अधिकृत करना चाहता है, उसके जीवन को विपद् में डालकर जीवित रहना चाहता है। यही नहीं उसके रक्ल और मांस से अपना संडार भरने की चिन्ता में संलग्न है।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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