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________________ * ॐ नमः सिद्धेभ्य . निन्ध-प्रवचन ... ॥ नववा अध्याय ।। .. m साधु धर्म-निरूपण श्री भगवान्-उवाचमूलः-सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउं न मरिजिउं । तम्हा पाणिवहं घोरं, गिग्गंथा वजयंति णं ॥१॥ छाया:-सर्वे जीवा अपि इच्छन्ति, जीवितुं न मर्तुम् । __ तस्मात् प्राणिवधं घोरं, निर्ग्रन्था वर्जयन्ति तम् ॥ १॥ शब्दार्थः-हे इन्द्रभूति ! संसार के सब जीव जीवन की इच्छा करते हैं, मरने की इच्छा कोई नहीं करता। अतएव निर्ग्रन्थ साधु घोर जीव-वध का त्याग करते हैं। भाष्यः-अणुव्रतों का पालन करने के पश्चात् और ब्रह्मचर्य की आराधना करने पर साधु पद प्राप्त करने की योग्यता प्राप्त हो जाती है। अतएव सातवें अध्याय्य में अणुव्रत तथा उनके पालन में सहायक प्राचार का और पाठवें अध्याय में ब्रह्मचर्य का निरूपण करने के अनन्तर इस अध्याय में साधु-धर्म की प्ररूपणा की जाती है। साधु-धर्म में पञ्च महाव्रतों का सर्वप्रथम और सर्वोपरि स्थान है। यह महाव्रत इतने व्यापक और विशाल अर्थ से परिपूर्ण हैं कि लमस्त मुनि-आचार का इन्हीं में समावेश हो जाता है । इली कारण इन्हें साधु के मूल गुण कहते हैं। जिनागम में विस्तारपूर्वक इनकी विवेचना की गई है । उसी का संक्षिप्त अंश यहां लिखा जाता है। जैसे समस्त प्राचार में पांच महाव्रत मुख्य हैं, शेष श्राचार इन्हीं व्रतों का विस्तार है, उसी प्रकार पांच महाव्रतों में अहिंसा महाबत मुख्य है और शेष व्रत उसके विस्तार हैं। जहां अहिंसा की पूर्ण रूप से प्रतिष्ठा हो जाती है वहां असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह समीप भी नहीं फटक सकते । पूर्ण अहिंसक असत्य का सेवन कर ही नहीं सकता, इसी प्रकार अन्य पापाचरण की भी उलसे संभावना नहीं की जा सकती। इसी कारण महाव्रतों में अहिंसा का आद्य स्थान है । यहां अध्याय की आदि में भी सर्वप्रथम अहिला का ही कथन किया गया है। निर्ग्रन्थ अर्थात् बाह्य और श्रान्तरिक परिग्रह से मुक्त मुनि । अथवा जो अनादिकालीन राग-द्वेष की गांठ का भेदन कर चुके हैं, उन्हें निर्ग्रन्थ कहते हैं। निर्ग्रन्थ शब्द की व्याख्या प्रथम अध्याय में की गई है।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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