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________________ [ २८६ ] आदि रख छोड़ते हैं वे वस्तुतः गृहस्थ की कोटि में ही गिने गये हैं, लिए संग्रह करना गृहस्थ का कार्य है, साधु का नहीं । प्राय को अत्यन्त पुष्ट करने के लिए सूत्रकार ने 'मनसापि न प्रार्थयेत' मी इच्छा न करे, ऐसा कहा है । रूवं जहा महूं, निद्धंतमलपावगं । गदोसभयातीतं तं वयं बूम माहणं ॥ १५ ॥ , याः - जातरूपं यथा मृष्टं, निध्मात मलपापकम् । रागद्वेषभयातीतं तं वयम् ब्रूमो ब्राह्मणम् ॥ १५ ॥ -अग्नि में सपा हुआ और कसौटी पर कसा हुआ सुवर्ण गुणयुक्त होता है, ; द्वेष और भय से अतीत पुरुष को हम ब्राह्मण कहते हैं । - इस माथा में तथा अगली गाथाओं में सूत्रकार ने ब्राह्मण का सच्चा है । र्ष में, प्राचीन काल से एक ऐसा वर्ग चला आता है जो अपनी संत्ता, स्थापित करने के लिए तथा स्थापित की हुई सत्ता को अक्षुण्ण बनाये अखण्ड - एक जातीय मानव समाज को अनेक खण्डों में विभक्त करता कर्म के आधार पर समाज की सुव्यवस्था का ध्यान रखते हुए विभाग उचित है, जिसमें व्यक्ति के विकास को भी अधिक से अधिक अवजन्म के आधार पर किसी प्रकार का विभाग करना सर्वथा अनुचित है। का परिहार करने का ही यहां प्रयत्न किया गया है । एक व्यक्ति न और प्रकृति से तमोगुणी होने पर भी अमुक वर्ष वाले के घर जन्म समाज में पूज्य, आदरणीय प्रतिष्ठित और ऊँचा समझा जाय और सुशील, ज्ञानी और सतोगुणी होने पर भी केवल अमुक कुल में जन्म कारण नीच और तिरस्करणीय माना जाय, यह व्यवस्था समाजना ही नहीं, ऐसा मानने से न केवल समाज के एक बहुसंख्यक भाग होता है, प्रत्युत यह सद्गुण और सदाचार का भी घोर अपमान है । व्यवस्था को अंगीकार करने से दुराचार सदाचार से ऊँचा उठ जाता न पर विजय प्राप्त करता है और तमोगुण सत्वगुण के सामने भादराता है। यह ऐसी स्थिति है, जो गुण- ग्राहक विवेकीजनों को सह्य नहीं व विभाग का आधार जन्म न होकर गुण और कर्म ही हो सकता है 1 ही कोई व्यक्ति आदरणीय या प्रतिष्ठित होना चाहिए या अनादरणीय ष्ठेत माना जाना चाहिए। इसमें भी एक बात और ध्यान देने वंश-परम्परागत कर्म के अनुसार हो तो समाज का अधिक योग्य है । बिकास हो
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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