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________________ [ २८८ ] धर्म-निरूपण विलनश्च गले वालः स्वरभंगाय जायने । .. इत्यादयो दृष्टदोषाः सर्वेषां निशिभोजने ॥ अर्थात् भोजन में कीड़ी (चिउँटी ) चली जाय तो बुद्धि का नाश होता है, जू चली जाय तो जलोदर नामक भयंकर रोग हो जाता है, मक्खी चली जाय तो वमन हो जाता है, छिपकली चली जाय तो कोढ़ हो जाता है, कांटा या फांस मिल जाय तो गले में व्यथा हो जाती है, व्यंजनों में मिलकर विच्छू पेट में चला जाय तो तालू वेध डालता है, बाल गले में चिपक जाय तो स्वर-भंग हो जाता है, उत्यादि अनेक दोष रात्रि भोजन में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होते हैं। यह ऐसे दोष हैं जो मिथ्या दृष्टियों के लिए और सम्यग्दृष्टियों के लिए भी समान हैं । यही कारण है कि जैनेतर ग्रंथों में भी रात्रि भोजन का निषेध किया गया है। रात्रि भोजन को जब मिथ्यादृष्टि भी हेय मानते हैं और प्रत्यक्षतः अनेक हानियां उससे होती हुई प्रतीत होती हैं तब.श्रावकों को रात्रि भोजन का त्याग करना चाहिए । रात्रि भोजन के त्याग का जो उद्देश्य है उसकी पूर्ति करने के लिए न केवल रात्रि में ही भोजन का त्याग करना चाहिए, किन्तु दिन में भी जहां श्रालोक का भली' भांति प्रसार न होता हो ऐसे स्थान पर भोजन नहीं करना चाहिए और साथ ही लन्ध्या के समय, जब सूर्य का प्रकाश मंद पड़ जाता है, भोजन का त्याग करना चाहिए । कहा भी है दिवस्याष्टमे भागे, मन्दीभूते दिवाकरे । नक्तं तु तद्विजानीयान्न नक्तं निशिभोजनम् ॥ अर्थात् रात्रि में जीमना ही रात्रि भोजन नहीं है वरन् दिन के आठवें भाग में, सूर्य का प्रकाश मन्द हो जाने पर भोजन करना भी रात्रि भोजन की गणना में सम्मि- .. लित है, क्योंकि रात्रि भोजन सम्बन्धी दोष उस समय भी होते हैं। - इसी प्रकार कई लोग रात्रि भोजन का त्याग करके भी रात्रि में बना हुआ भोजन कर लेते हैं और रात्रि में भोजन बनाते हैं । ऐसा करने में भी घोर हिंसा होती है। त्रस जीवों की हिंसा से अन्धकार में बचना शक्य नहीं है। अतएवं वनाने वाला त्रस-हिला के पाप का भागी होता है और उस भोजन का उपभोग करने वाला मांसभक्षण का दोषी ठहर जाता है । ऐसे भीषण पाप से बचने के लिए रात्रि में भोजन वनाना, रात्रि में बना भोजन जीमना और रात्रि भोजन करना-सभी का त्याग करना चाहिए। रात्रि भोजन त्याग छठे व्रत के रूप में शास्त्रों में वर्णित है और प्रत्येक श्रावक को व्रत रक्षा के लिए रात्रि भोजन त्याग करना अनिवार्य है। गाथा में आहार के साथ 'आदिक' पद का प्रयोग किया गया है। महाव्रतधारी साधुओं को आहार के अतिरिक्त अन्य आवश्यक पदार्थ भी रात्रि में ग्रहण नहीं करना चाहिए । इतना ही नहीं, श्राहार या औषध श्रादि कोई भी अक्षणीय पदार्थ, आगामी दिन उपभोग करने के लिए रात्रि में अपने पाल भी उन्हें रखना न चाहिए । जो साधु
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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