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________________ [ २७४ 1 धर्म-निरूपण इस लोक में और परलोक में सुखी बनने के लिए यह गुण अत्यंत आवश्यक हैं अतः श्रावक को इन गुणों से युक्त होना चाहिए। मूलः-इंगाली-वण-साडी-भाडी फोड़ी सुवजए कम्मं । वाणिजं चेव प दंत-लक्ख-रस केस विसविसयं ॥२॥ एवं खुजंतपिल्लणकम्मं, निलंछणं दवदाणं । सरदहतलायसोसं, असईपोसं च वजिजा ॥३॥ छाया:-अङ्गार-वन-शाटी-भाटिः स्फोटिः सुवर्जयेत् कर्म। वाणिज्यं चैव च दन्त- लाक्षा-रस-केश-विष-विषम् ॥ २ ॥ एवं खलु यन्त्र पीडन कर्म, निलीन्छनं दवदानम् । सर दहतड़ागशोपं, असतीपोपम च वर्जयेत् ॥३॥ शब्दार्थः-श्रावक को (१) अंगार कर्म (२) वन कर्म.(३) शाटी कर्म (४) भाटिकर्म (५) स्फोटि कर्म (६) दन्तं वाणिज्य (७) लाक्षावाणिज्य (८) रसवाणिज्य (6) वेशवाणिज्य (१०) विषवाणिज्य (११) यंत्रपीडन कर्म (१२) निलाञ्छन कर्म (१३) दवदान कर्म (१४) सरद्रह तड़ाग शोषण कर्म (१५) असती पोषण कर्म, इन पन्द्रह कर्मादानों का .. त्याग करना चाहिए। भाष्यः-सातवें व्रत का विवेचन करते समय उसके दो भेद बताये गये थे। उनमें से भोजन संबंधी व्रत का निरूपण वहां किया गया था । कर्म संबंधी. उपभोग परिभोग परिमाण व्रत का पालन करने के लिए पन्द्रह कर्मादानों का सर्वथा परित्याग करना आवश्यक है । यह कर्मादान कर्म संबंधी उपभोग परिमाण व्रत के अति-- चार हैं। . कर्मादान श्रावक को जानने चाहिए पर इनका आचरण नहीं करना चाहिए। जिस कार्य से प्रगाढ़ कर्मों का बंध होता है उसे कर्मादान कहते हैं । कर्मादान के पन्द्रह भेद हैं । उनका अर्थ इस प्रकार है:- . . . . . . . . (१) अंगार कर्म-कोयले तैयार करवाकार बेचना, भड़भूजा आदि का तथा . इसी प्रकार का अन्य कोई महान् श्रारंभवाला धंधा करना। . ... (२) वनकर्म-जंगल का ठेका लेकर कटवाना, फल, फूल आदि वनस्पति का वेचना वनकर्म कहलाता है। .: (३) शाटी कर्म-गाड़ी, छकड़ा, रथ, बग्घी आदि बनाकर बेचना, इनके अंग जैसे पहिया वनाना और वेचना साडीकस्म या शाकट कर्म कहलाता है। (४) भाटिकर्म-वैल, घोड़ा, ऊँट आदि को भाड़े पर देने का धंधा करना । (५) स्फोटि कर्म-जमीन खोदने का धंधा करना, कूप, तालाव आदि लोद ___ कर आजीविका चलाना। . . .
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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