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________________ सातवां अध्याय [ २७१ ] (४) रूपामुपात - अपना रूप दिखाना अर्थात् ऐसी चेष्टा करना जिससे कोई पुरुष उसे देखकर उसके पास श्रा जाय । (५) बाह्य पुद्गल परिक्षेप - कंकर, लकड़ी आदि फैंक कर मर्यादा से बाहर स्थित पुरुष को बुलाने का प्रयत्न करना । इन पांच प्रतिचारों का सेवन न करता हुआ इस व्रत का अनुष्ठान करे । श्रतिचार का सेवन करने से व्रत का उद्देश्य खंडित हो जाता है। जहां श्रंशतः खंडन होता है वहीं अतिचार लग जाता है । (३) पौषधोपवासव्रत - जिस व्रत से धर्म का, आत्मा के स्वाभाविक गुणों का अथवा षटकाय जीवों का पोषण होता है उसे पौषधव्रत कहते हैं । यह व्रत प्रायः अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या रूप चार विशिष्ट तिथियों में तो अवश्य किया जाता है | जिस दिन व्रत करना हो उससे एक दिन पूर्व एकाशन करना चाहिए, रात्रि-दिन अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। दूसरे दिन प्रातःकाल पौषधशाला में अथवा घर के किसी शान्त और एकान्त स्थान में निवास करना चाहिए । सम्पूर्ण दिन और रात्रि अनशन करके, धर्म-ध्यान में व्यतीत करे और तीसरे दिन फिर एकाशन करे । परिपूर्ण पौषधत्रत में चार वार के भोजन का त्याग किया जाता है । पौषधवत को ग्रहण करने पर सब प्रकार के सावद्य कार्यों का, ब्रह्मचर्य का, शरीर-संस्कार का, उबटन, लेपन, फूल माला धारण, सुन्दर वस्त्राभूषणों का परिधान इत्यादि सब का त्याग करना आवश्यक है । इस व्रत का अनुष्ठान करते समय श्रावक, साधु सदृश वृत्ति धारण करता है। पौषधवत दो प्रकार का है: - (१) सर्वतः और (२) देशतः । अर्थात् परिपूर्ण पौषध और एक देश पौषध । परिपूर्ण पौषध में आहार आदि का पूर्ण रूप से त्याग किया जाता है और देश पौषध में श्रांशिक त्याग किया जाता है | साधु-जीवन का अभ्यास करने के लिए, त्याग की ओर प्रयाण करने के लिए आत्मा में धार्मिक निश्चलता उत्पन्न करने के लिए यह व्रत परमावश्यक और परमोपयोगी है। इसकी पूर्ण विधि अन्यत्र देखना चाहिए | पौषव्रत के पांच प्रतिचार इस प्रकार हैं (१) अप्रतिलेखित दुष्प्रतिलेखित शय्या संस्तार - पौषध के स्थान को, विछानेश्रोढ़ने के वस्त्रों को, तथा पाठ आदि को प्रतिलेखन न करना अथवा यतना के साथ प्रतिलेखन न करना । (२) श्रप्रमार्जित - दुष्प्रमार्जित शय्यासंस्तार - पूर्वोक्त वस्तुओं को रजोहरण आदि मुलायम उपकरण से पूंजना नहीं या यतना के साथ न पूंजना । (३) प्रतिलेखित - दुष्प्रतिलेखित उच्चारप्रवणभूमि - मल-मूत्र कफ़ आदि त्यागने की भूमि को न देखना या यतनापूर्वक न देखना । तालर्य यह है कि यह स्थान जीव-रहित है या नहीं, इस प्रकार भलीभांति देखे बिना मल-मूत्र का त्याग करने से अतिचार लगता है ।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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