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________________ - - छठा अध्याय [ २४७ ] प्रकार धर्म-क्रिया के फल में संदेह न करना, प्रत्युत धर्म-क्रिया के फल-स्वरूप सुगति, दुर्गति या मुक्ति श्रादि की प्राप्ति के विषय में पूर्ण श्रद्धा न रखना निर्विचिकित्सा अंग है। (४) अमूदाहित्व--सम्यग्दृष्टि को मिथ्यादृष्टियों की देखादेखी कोई प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए, अन्धश्रद्धा के अधीन होकर निरर्थक, संघ-विघातक, कपोलकल्पित क्रियाओं में व्यापार नहीं करना चाहिए । 'सम्यग्ज्ञान से विचार कर, जो पाचरण संघ को लाभप्रद हो, श्रात्मा में मलीनता न लाने वाला हो और सावधानी से सोचविचार कर निश्चित किया गया हो, उसमें प्रवृत्ति करनी चाहिए। इस प्रकार प्रत्येक विषय में पटुता रखना, अपनी प्रज्ञा को जागृत रखना और विचार कर गुणकारक कार्य करना अमूढदृष्टित्व अंग है। (५) उपबृंह-सम्यग्दृष्टि पुरुषों की प्रशंसा करके सम्यक्त्व की वृद्धि करना, उनके गुणों की वृद्धि में सहायक होना, अवगुणों का परित्याग कर गुण ग्रहण करना उपह अंग है। (६) स्थिरीकरण -सांसारिक कष्टों में पड़कर या अन्य प्रकार से बाध्य होकर जो सम्यग्दृष्टि अपने सम्यग्दर्शन से च्युत होने वाले हैं, अथवा चारित्र से भ्रष्ट होने वाले हैं, उनका कष्ट दूर करके, भ्रष्ट होने का निमित्त हटाकर उन्हें सम्यग्दर्शन या सम्यक् चारित्र में स्थिर करना स्थिरीकरण अंग है। .. (७) वात्सल्य-संसार संबंधी नातेदारियों में साधर्मी भाई की रिश्तेदारी सर्वोच्च है। अन्यान्य नातेदारियां संसार में फंसाने का जाल है, मोह का प्रसार करने वाली है, संसार रूपी घोर अंधकारमयी सुरंग में ले जाने वाली है, किन्तु साधी-पन का संबंध अप्रशस्त राग का निवारण करने वाला, प्रकाश के प्रशस्त पथ में ले जान वाला है । ऐसा सोच कर साधर्मी के प्रति अान्तरिक स्नेह का होना, गो-बत्ल की तरह प्रेम होना वात्सल्य अंग है । (८) प्रभावना-जिन प्रवचन का जगत् में माहात्म्य-विस्तार करना, धर्म संबंधी अशान का निवारण करना, धर्म का प्रचार करना और धर्म का चमत्कार संसार में फैलाना प्रभावना अंग है। . इन आठों अंगों का सम्यक् प्रकार से पालन करने वाला पुरुष पूर्ण सम्यक्त्य का धारक कहलाता है । सम्यक्त्वी जीच नरक गति, तिर्यञ्चगति, नपुंसकत्व, जीत्व, दुकुल, अल्पायुष्कता, विकृत जीवन, याण-व्यन्तर, भवनवासी देवता आदि में उत्पन्न नहीं होता । श्रतएव जो इन कुयोनियों या दुरवस्थाओं से बचना चाहे उन्हें सम्यक्त्व को सुदृढ़ बनाना चादिप । मूल:-मिच्छादसणरत्ता, सनियाणा हु हिंसगा। इय जे मरन्ति जीवा, तेसिं पुण दुल्हा वोही ॥ ६ ॥
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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