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________________ [ २४६ 1 सम्यक्त्व-निरूपण समन्वित, निराकार अवस्था-विशेष का उद्भव होता है। वह अवस्था निर्वाण अवस्था कहलाती है। .. इस विवेचन से स्पष्ट है कि सम्यग्दर्शन मोक्ष-रूपी महल की प्रथम सीढ़ी है। सम्यग्दर्शन पाने पर ही मनुष्य मोक्ष की और उन्मुख होता है। बिना सम्यग्दर्शन के समस्त ज्ञान और चारित्र मिथ्या होते हैं, उनसे सलार-भ्रमण की वृद्धि होती है। अतएव मुमुक्षु पुरुषों को सब से पहले सम्यग्दर्शन प्राप्त करना चाहिए और जिन्हें वह प्राप्त है उन्हें सुदृढ़ और निर्मल बनाना चाहिए । सम्यक्त्व को मलीन न होने देना श्रात्मकल्याण के लिए अनिवार्य है । सम्यक्त्व के बिना किया जाने वाला पुरुषार्थ विपरीत दिशा में ही ले जाता है। मूलः-निस्संकिय निक्कंखिय,निव्वितिगिच्छाअमूढदिट्ठी य । उववूह-थिरीकरणे,वच्छल्ल-पभायणे अट्ठथ ॥ ८॥ छाया:-निश्शंकित निःकाक्षित, निर्विचिकित्साऽमूदृष्टिश्च । . उपवृंह-स्थिरी करणे, वात्सल्य-प्रभावनेऽष्टौ ॥८॥ ... शब्दार्थः--निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूदृष्टि, उपह,स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना, यह आठ सम्यग्दर्शन के अंग हैं। भाष्यः-सम्यग्दर्शन के स्वरूप का विश्लेषण पूर्वक विशिष्ट विवेचन करने के लिए सूत्रकार ने यहां सम्यग्दर्शन के पाठ अंगों का निरूपण किया है। जैसे शरीर का स्वरूप समझने के लिए उसके अंगोपांगों का स्वरूप जानना श्रावश्ययक है, क्योंकि अंगोपांगों का समूह ही शरीर है । समस्त अंगों से अलग. शरीर की सत्ता नहीं है। अंगोपांगों का स्वरूप समझ लेने से ही शरीर का स्वरूप ज्ञात होजाता है। इसी प्रकार निःशंकित श्रादि पूर्वोक्त अंगों के समुदाय को ही सम्यग्दर्शन कहते हैं। इन अंगों के पालन से ही सम्यक्त्व का पालन हो जाता है। अतएव श्राठ अंगों के विवेचन से सम्यग्दर्शन का विवेचन हो जाता है । पाठों अंगों का अर्थ इस प्रकार है (१) निःशंकित-वीतराग और सर्वज्ञ होने से जिन भगवान् कदापि अन्यथा. . वादी नहीं हो सकते, जिनेन्द्र देव द्वारा उपदिष्ट तत्व यही है, ऐसा ही है-अन्य रूप नहीं हो सकता, इस प्रकार की सुदृढ़ प्रतीति निःशंकित अंग है। . .. (२) निःकांक्षित-सरागी देव, परिग्रहधारी गुरु और एकान्तमय धर्म आत्मा के लिए अहितकारक हैं, ऐसा समझकर अथवा मिथ्यात्रियों के प्राडम्बर से प्राकृष्ट होकर उनके मार्ग को ग्रहण करने की जरा भी आकांक्षा न होना निःकांक्षित अंग है। (३) निर्विचिकित्सा-गृहस्थधर्म और साधुधर्म का अनुष्ठान करने का इस लोक में या परलोक में कुछ फल होगा या नहीं ? हस्तगत काम-भोगों को त्यागकर जो उपवास, त्याग-प्रत्याख्यान किया जाता है वह कहीं निष्फल तो नहीं होगा ? इस
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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