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________________ [ २४२ ] सम्यक्त्व-निरूपण रूपी वृक्ष स्थिर नहीं रह सकता । सम्यक्त्व की दृढ़ता होने पर धर्म अनेक विघ्नवाधाओं के होने पर भी स्थिर रहता है। सम्यक्त्व की विद्यमानता में ही धर्म-तरु में दया रूप पत्र लगते हैं, सदगुण रूप सुरभिमय सुमन खिलते हैं और अव्यावाध सुख रूपी फल लगता है। (२) सम्यक्त्व, धर्म रूपी नगर की चहारदीवारी है । जैसे. चहारदीवारी से सुरक्षित नगर पर शत्रु सहज ही आक्रमण नहीं कर सकता, उसी प्रकार सम्यक्त्व से सुरक्षित धर्म पर अन्य तीर्थी या आध्यात्मिक शत्रु आक्रमण करने में समर्थ नहीं हो सकते । नगर में प्रवेश करने के लिए द्वार में से जाना पड़ता है, उसी प्रकार धर्म में सम्यक्त्व के द्वार से ही प्रवेश करना पड़ता है। (३) सम्यक्त्व, धर्म रूपी महल की नींव है । नींव जितनी अधिक दृढ़ होगी मकान भी उतना ही अधिक दृढ़ रहेगा। कच्ची नींव वाला महल प्रकृति के उत्पातों को सहन नहीं कर सकता। इसी प्रकार जिसका सम्यक्त्व अचल है, उसका धर्म भी अचल होता है । कच्ची श्रद्धा वाले का धर्म स्थिर नहीं रहता । वह तनिक से उत्पात से ही भ्रष्ट हो जाता है। अतएव धर्म को स्थिर रखने के लिए सम्यक्त्व को निश्चल बनाना चाहिए। . . . . . . . . . . . . (४) लम्यक्त्व, धर्म रूपी अनमोल रत्न की मंजूषा (पेटी) है। जैसे लोक में बहुमूल्य रत्न को सुरक्षित रखने के लिए पेटी का उपयोग किया जाता है उसी प्रकार धर्म रूपी अमूल्य चिन्तामणि-रत्न की सुरक्षा के लिए सम्यक्त्व रूपी पेटी की आवश्यकता है। रत्न चाहे जितना मूल्यवान् हो, पर वास्तव में वह पुदल है-जड़ है। उसका मूल्य भी काल्पनिक है। मनुष्य-समाज ने उसे मूल्य प्रदान किया है, पर धर्म चेतना का स्वभाव है। संसार के समस्त रत्नों की एक राशि चनाई जाय तो भी धर्म के सर्व से न्यून एक अंश की भी बरावरी वह राशि नहीं कर सकती । ऐसी अवस्था में धर्म को रक्षित रखने के लिए कितनी सावधानी रखनी चाहिये ? धर्म चैतन्यमय है अतएव चैतन्यमय सम्यक्त्व में ही उसकी सुरक्षा हो सकती है। (५) सम्यक्त्व, धर्म रूपी भोजन का भाजन है । जैसे मधुर भोजन को भाजन (पात्र) ही अपने भीतर रखता है उसी प्रकार धर्म रूपी भोजन के लिए सम्यक्त्व रूपी पात्र की आवश्यकता होती है । विना भाजन के भोजन नहीं ठहर सकता उसी प्रकार बिना सम्यक्त्व के धर्म की स्थिति नहीं हो सकती। (६) सम्यक्त्व, धर्म रूपी किराने का कोठा है। जैसे छिद्र रहित. कोठे में स्थापित किया हुआ किराना चूहा श्रादि तथा चोर आदि के उपद्रव से सुरक्षित रहता है उसी प्रकार धर्म रूपी किराना छिद्र रहित अर्थात् अतिचार रहित सम्यक्त्व रूपी कोठे में सुरक्षित रहता है । निरतिचार सम्यक्त्व धर्म को सब प्रकार की याधाओं से बचा कर निर्दोप बनाता है।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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