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________________ छठा अध्याय [ २४९ ] (५) मिथ्यादृष्टि संस्तव -- मिध्यादृष्टियों के साथ रहना, उनसे आलाप-संलाप करके घुल-मिल जाना, परिचय करना मिध्यादृष्टि संस्तव कहलाता है । एक साथ रहने आदि से सम्यक्त्व के नष्ट होने की संभावना रहती है । श्रतएव सम्यग्दृष्टि को इस दोष का भी परित्याग करना चाहिए । यह सम्यक्त्व के पाँच दूषण हैं | सम्यक्त्व को विशिष्ट बनाने के लिए पाँच भूषण हैं । जैसे सुन्दर शरीर श्रभूपण से अधिक सुन्दर हो जाता है उसी प्रकार इन गुणों से सम्यक्त्व भूषित होता है, अतएव इन्हें भूषण कहां है । स्थैर्य प्रभाव क्तः, कौशलं जिनशासने । तीर्थसेवा च पञ्चास्य, भूषणानि प्रचक्षते अर्थात् ( १ ) स्थैर्य ( २ ) प्रभावना ( ३ ) भक्ति ( ४ ) कौशल और ( 2 ) संघ की लेवा, ये सम्यक्त्व के पाँच भूषण हैं | ( १ ) स्थैर्य-जिनेन्द्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट शासन में स्वयं दृढ़-चित्त होना और अन्य को दृढ़ करना स्थिरता भूषण है । ( २ ) प्रभावना-जिनशासन के विषय में फैले हुए ज्ञान को दूर करके शासन की महत्ता का प्रकाश करना प्रभावना भूषण है । प्रभावक प्रायः आठ प्रकार के होते हैं - ( १ ) द्वादशांग का विशिष्ट अध्ययन करके ज्ञान प्राप्त करने वाले (२) धर्मोपदेश देने वाले ( ३ ) वादविवाद में प्रतिपक्षी को पराजित करने वाले वादी ( ( ४ ) नैमित्तिक- त्रिकाल संबंधी लाभ - श्रलाभ बताने वाले निमित्त शास्त्र का ज्ञाता ( ५ ) विशिष्ट तपस्या करने वाले तपस्वी ( ६ ) प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं को जानने वाले (७) अंजन, पादप, तिलक आदि सिद्धियां प्राप्त करने वाले सिद्ध (८) गद्य, पद्य या उभयात्मक रचनां द्वारा कविता का निर्माण करने वाले कवि । यह घाट प्रभावक माने गये हैं । • ( ३ ) क्लि - विनय करना, वैयावृत्य करना, सम्यक्त्व यदि गुण की अपेक्षा जो बड़े हों उनका यथोचित सत्कार-सन्मान करना । ( ४ ) कौशल - जिन मत में कुशल होना । सर्वोक्त सिद्धान्तों के मर्म को समने-समझाने में निपुण होना । (५) संघ की सेवा - साधु, साध्वी, धारक, धाविका रूप चतुर्विध संघ या तीर्थ की सेवा करना । प्रत्येक सद्गुण को प्राप्त करने और प्राप्त करने के पश्चात् उसे नष्ट न होने देने के लिए भावना एक प्रबल कारण है । सम्यक्त्व की स्थिरता के लिए भी भावनाओं की आवश्यकता होती है । वे भावनाएँ छह है (१) सम्यस्त्व, धर्म रूपी वृक्ष का मूल है। जैसे बिना मूल के वृक्ष नहीं टिक सकता और मूल यदि सुरट्ट होता है तो वृक्ष की स्थिति दीर्घकालीन होती मीर वह आंधी श्रादि के उपद्रवों से नष्ट नहीं होता, उसी प्रकार सम्यक्त्व के विना धर्म
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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