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________________ पांचवां अध्याय २२३ ] तात्पर्य यह है कि ज्ञानी पुरुष वस्तुओं के स्वभाव को वास्तविक रूप से जानने लगता है । श्रात्मा के अतिरिक्त अन्य पदार्थों के संयोग को ही वह आपत्ति का मूल समझता है। अतएव वह किसी भी बाह्य पदार्थ के संयोग की अभिलाषा नहीं करता और संयोग हो जाने पर उसमें हर्ष-भाव उत्पन्न नहीं होने देता। संयोग में जिसे हर्ष नहीं होता उसे वियोग होने पर विपाद भी नहीं होता है । समता भावी पुरुष जगत् के अभिनय का निरीह दृष्टा होता है। कोई भी दृश्य उसके हृदय पर अनुकूल-प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालता । इसी कारण वह राग-द्वेष से मुक्त बना रहता है । साम्य की यह मनोवृत्ति प्रबल साधना से प्राप्त होती है। इसके लिए आत्म-निष्ठा की अपेक्षा होती है । साम्य भाव योगियों का परम श्राश्रय है इसीसे संवर, निर्जरा होती है यही मुक्ति का प्रधान कारण है। अतः समताभाव का प्राश्रय लेना चाहिए। निर्ग्रन्थ-प्रवचन-पांचवां अध्याय समाप्तम्
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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