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________________ [ २२२ ] ज्ञान-प्रकरण न करता तो मेरी प्रशंसा न होती, अतएव इस प्रशंसा का श्रेय चारित्र को ही है। . अथवा, प्रशंसक जब किसी गुण-विशेष की प्रशंसा करता है तब नानी उस गुण संबंधी अपनी अपूर्णता का विचार करता है और उस अपूर्णता को दूर करनेके लिए संकल्प करता है । इस प्रकार वह प्रशंसा सुनकर प्रसन्न नहीं होता। . ज्ञानी सन्मान और अपमान में भी समताभाव का ही सेवन करता है। वन्दना, नमस्कार करके संयमोपयोगी श्राहार प्रादि देकर सम्मान करने वाले पर वह राग नहीं करता और गाली देने वाले पर द्वेष नहीं करता। इन सब प्रसंगों पर वह अपने उपार्जित कर्मों को ही कारण समझकर समता का सहारा लेता है। . समता-भाव का चमत्कार अपूर्व है । जन्म के वैरी. जंतु भी समताभावी के संसर्ग में आकर अपना वर त्यागकर मित्र बन जाते हैं । समताभावी महात्मा सदा साम्य-सरोवर में निमग्न रहकर, अद्भुत सुख-सुधा का पान करके; सुखोपभोग करता रहता है । साम्यभाव के प्रभाव से कर्मों का विध्वंस होकर आत्मा अकलंक बन जाता है। . .. साम्यभावी जानी पुरुष संसार में इष्ट या अनिष्ट समझे जाने वाले पदार्थों में मोहित नहीं होता। श्रोता और निन्दक पर राग-द्वेष नहीं करता। प्रत्येक प्रसंगपर अरक्त-द्विष्ट रहता है। · मूल:-अणिस्सिनो इहं लोए, परलोए अणिस्सियो। वासीचंदणकप्पो य, असणे अणसणे तहा ॥ १४ ॥ - . . छाय.:-अनिश्रित इह लोके, परलोकेऽनिश्रितः। वासी-चन्दनकल्पश्च, अशनेऽनशने तथा ॥ १४ ॥ ___शब्दार्थ:-हे इन्द्रभूति ! जो इस लोक में अनपेक्ष होता है, परलोक में अनपेक्ष होता है और वासी-चंदन के समान अर्थात् जैसे चंदन अपने को काटने वाले वसूले को भी सुगंधित करता है, उसी प्रकार कष्ट देने वाले को भी साता पहुंचाता है, और . . भोजन करने तथा अनशन करने में समभाव रखता है, वही ज्ञानी पुरुष है। भाष्य-सस्थरझानी पुरुष के साम्यभाव को पुनः प्रदार्शत करते हुए सूत्रकार ने यहां यह बतलाया है कि जिसे सम्यग्ज्ञान का फल लाम्यभाव प्राप्त हो जाता है वह इसलोक के धन, धान्य, राजपाट, आदि वैभवों, की अभिलापा नहीं रस्त्रता और न परलोक में स्वर्ग आदि के दिव्य सुखों की कामना करता है। वह अपने को दुःख पहुंचाने वाले पुरुप की भी शुभ कामना ही करता है । जैसे चन्दन का वृक्ष, काटने वाले वसूला को भी अपनी मनोहर सुगंध से सुगंधित बना देता है उसी प्रकार समताभावी योगी परीपह और उपसर्ग देनेवाले पुरुप को भी सुख ही पहुंचाता है भोजन मिलने और न मिलने की श्रावस्था में भी उसे हर्ष-विपाद नहीं होता।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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