SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पांचवां अध्याय [.१६५ ] (१२) अगमिक श्रुत-गाथा, श्लोक आदि रूप विसदृश पाठ वाला श्रुत अगमिक श्रुत कहलाता है। .. ' (१३-१४) अंगप्रविष्ठ-अंगबाह्य श्रुत-दोनों का कथन पहले किया जा चुका है। बिना इन्द्रिय और मन की सहयता से, मर्यादापूर्वक, रूपी पदार्थों को स्पष्ट जानने वाला ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है.। अवधिज्ञान के विभिन्न अपेक्षाओं से कई प्रकार से भेद होते हैं। संक्षेप से निमित्त की अपेक्षा उसको दो भेद हैं-(१) भवप्रत्यय अवधि और (२) क्षयोपशम प्रत्यय अवधि । जैसे पक्षियों का आकाशगमन भव-हेतुक है उसी प्रकार देव और नारकी जीवों को, भवके निमित्त से होने वाला अवधिज्ञान भवप्रत्यय अवधि कहलाता है । देव-नारकी के अतिरिक्त अन्य जीवों को क्षयोपशम निमित्रक होता है। __यद्यपि अवधिज्ञान क्षायोपशमिक भाव है अतएव देवों और नारकियों को भी बिना क्षयोपशम के अवधिज्ञान होना संभव नहीं है, फिर भी उनके अवधि को भवहेतुक कहने का आशय यह है कि देव भव और नारकी भव का निमित्त पाकर अवधिज्ञान का क्षयोपशम अवश्यमेव हो जाता है, इसी कारण उनका ज्ञान भवप्रत्यय कहलाता है । मनुष्य भव और तिर्यञ्च भव में जो अवधिज्ञान होता है वह भव का निमित्त पाकर नहीं होता है । यही कारण है कि सब देवों और नारकियों को तो अवधिशान होता है पर सच मनुष्यों और तिर्यञ्चों को नहीं होता। - अवधिज्ञान के छह भेद उसके स्वरूप की अपेक्षा होते हैं। वे इस प्रकार हैं(१) अनुगामी (२) अननुगामी (३) वर्द्धमान (४) हीयमान (५) अवस्थित (६) अनवस्थित। . (१) अनुगामी-जो अवधिज्ञान, अवधिज्ञानी के साथ एक स्थल से दूसरे स्थल पर जाने पर साथ जाता है, जैसे सूर्य का प्रकाश सूर्य के साथ जाता है। ___ (२) अननुगामी-जो अवधिमान, एक स्थल पर उत्पन्न होकर अवधिज्ञान के साथ अन्यत्र नहीं जाता, जैसे वचन । ' (३) वर्द्धमान-वांसों की रगड़ से उत्पन्न होने वाली अग्नि सूखा ईधन अधिकअधिक मिलने से जैसे क्रमशः बढ़ता जाती है, उसी प्रकार जो अवधिमान जितने परिमाण में उत्पन्न हुआ था, वह परिमाण सम्यग्दर्शन आदि गुणों की विशुद्धि की वृद्धि का निमित्त पाकर उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है ।। (४) दीयमान-धन की कमी से जैसे अग्नि उत्तरोत्तर कम होती जाती है उसी प्रकार जो अवधिज्ञान सम्यग्दर्शन श्रादि गुणों की हानि के कारण उत्तरोत्तर कम होता जाता है। . (५) अवस्थित-जो अवधिज्ञान जितने परिमाण में उत्पन्न होता है उतने ही परिमाण में श्राजीवन या केवलज्ञान की उत्पत्ति होने तक बना रहता है अर्थात् न पढ़ता है न घटता है, वह अवस्थित कहलाता है।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy