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________________ । १६४ .. झान-प्रकरण . श्रुत (१४) अंगवाह्यश्रुत। (१) अक्षरश्रुत-अनुपयोग अवस्था में भी जो चलित नहीं होता वह अक्षर कहलाता है। अक्षर तीन प्रकार के है-(१) संज्ञाक्षर (२) व्यंजनाक्षर और ३) लब्धि -अक्षर। . . . . . . . . . . . . . . . ... हंसलिपि, भूतलिपि, उड्डीलिपि, पवनीलिपि, तुरकीलिपि, कीरीलिपि,द्राविड़ी लिपि, मालवीलिपि, नटीलिपि, नागरीलिपि, लाटलिपि पारसीलिपि, अनिमित्तलिपि, चाणक्यलिपि, मूलदेवीलिपि, आदि-आदि लिपियों में लिखे जाने वाले अक्षर संज्ञाक्षर कहलाते हैं । मुख से बोले जाने वाले श्र, श्रा, क, ख, आदि अक्षर व्यंजन-अक्षर कहलाते हैं । इन्द्रिय या मन के द्वारा उपलब्ध होने वाले अतर लब्धि-अक्षर कहलाते हैं। यह अक्षर अथवा इनसे होनेवाला श्रुतज्ञान अक्षर-श्रुतं कहलाता है। . ... (२) अनक्षरश्रुत-उच्छास, निःश्वास, थूकना, खांसना, छींकना, सूंघना, .. चुटकी बजाना, इत्यादि अनवरश्रुत कहलाता है । क्योंकि विशिष्ट संकेत पूर्वक जब । यह चेष्टाएँ की जाती हैं तो दूसरे को इन चेष्टाओं से चेष्टा करने वाले का अभिप्राय विदित हो जाता है । यह सब पूर्व कथनानुसार उपचार से ही श्रुतज्ञान कहलाता है। '.. (३) संशि-श्रुत-विशिष्ट संज्ञा वाला जीव संझी कहलाता है। संजी जीव के श्रुत को संजीभुत कहते हैं। __.. (४) असंजिश्रुत-संजी अर्थात् अत्यल्प संशा वाले जीव असंत्री कहलाते हैं। उनका श्रुत श्रसंज्ञीश्रुत कहलाता है। (५) सम्यक्श्रुत-सम्यक्त्वपूर्वक जो श्रुत होता है अर्थात् सम्यग्दृष्ट जीव को जो श्रुतज्ञान होता है वह सम्यक्श्रुत कहलाता है.. .... ... ... ... ... (६) मिथ्याश्रुत-मिथ्यादृष्टि जीवों का श्रुत मिथ्याश्रुत है। . ...... . (७)मादिभुत-जिस श्रुत की आदि होती है वह सादिश्रुत है। . . (E) अनादिश्रुत-जिस श्रुत की प्रादि नहीं होती वह अनादिश्रुत हैं। ...द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा द्वादशांगी रूप भुत नित्य होने के कारण अनादि और साथ ही अनन्त है। क्योंकि जिन जीवों ने यह श्रुत पढ़ा है या जो पढ़ते हैं. अथवा पढ़ेंगे. वे.अनादि.अनन्त है और उनसे अभिन्न-पर्यायरूप होने के कारण श्रुत भी अनादि-अनन्त है। पर्यायार्थिकनय की दृष्टि से यह श्रुत सादि और सान्त है, क्यों कि वह पर्याय रूप है.और पर्याय सादि होती है और सान्त होती है। ... .. (110) सपर्यवसित-अपर्यवसित श्रुत-जिसका अन्त हो वह सपर्यवसित श्रुत. और जिसका अन्त न हो वह अपर्यवसित श्रुत कहलाता है । इनका स्पष्टीकरण ऊपर किया जा चुका है। .. .....: (११) गमिक श्रुत-जिस भंगों की तथा गणित श्रादि की बहुलता होती है अथवा जिसमें प्रयोजनवश समान पाट होते हैं वह गमिक भुत कहलाता है। ...:
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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