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________________ [ १७४ . श्रात्म-शुद्धि के उपाय अरति-संसार के कारणभूत भोगोंपमोगों को पाकर प्रसन्न होना तथा धर्म-साधना में अप्रसन्नता रखना (१६) परपरिवाद-दूसरों को कलंक लगाना-निन्दा करना (१७) माया मृषा-कपटयुक्त असत्य भाषण करना तथा (१८) मिथ्यादर्शनशल्य-मिथ्या श्रद्धान करना। इन अठारह प्रकार के पापों का सेवन करने से संसार की वृद्धि होती हैं, क्यों कि इनके सेवन से श्रात्मा में मलिनता उत्पन्न होती है । अतएव श्रात्म-शुद्धि का उपाय करने वालों को इन पापों का परित्याग अवश्य करना चाहिए । मूलः-अज्झवसाणनिमित्ते, श्राहारे वेयणापराघाते । फासे अणापाणू, सत्तविहं झिझए अाऊ ॥ १७॥ 'छाया:-अध्यवसान निमित्ते, श्राहारो वेदना पराघात : स्पर्श प्रानप्राणः सप्तविधं क्षीयते श्रायुः ॥ १७ ॥ शब्दार्थः-आयु सात प्रकार से क्षीण होता है--(१) भयंकर वस्तु का विचार आने से (२) शस्त्र आदि के निमित्त से (३) विषैली वस्तुओं के आहार से या आहार के निरोध से (४) शारीरिक वेदना से (५) गढे में गिरने आदि से (६) सर्प आदि के स्पर्श से (७) श्वासोच्छ्वास की रुकावट से। भाष्यः--अकाल मृत्यु के संबंध में पहले किंचित् उल्लेख किया गया है। यहां सूत्रकार ने अकालमृत्यु के कारणों का निरूपण किया है। अकालमृत्यु का तात्पर्य यह है कि जो श्राय धीरे-धीरे लम्बे समय में भोगी जाने वाली थी वह जल्दी-जल्दी अन्तर्महर्त में भी भोगी जाती है। ऐसा प्रसंग क्यों उपस्थित होता है-नियत समय से पूर्व ही श्रायु कर्म को भोगने का कारण क्या है ? इसी प्रश्न का यहां सात कारण बतलाकर समाधान किया गया है । भयंकर वस्तु के दर्शन से अथवा दर्शन न होनेपर भी उसका विचार श्राने से प्रायु क्षीण हो जाती है । इसी प्रकार लकड़ी, डंडा, अस्त्रशस्त्र प्रादि निमित्तों से, आहार का निरोध होने से या अधिक श्राहार करने से, शूल श्रादि की असह्य शारीरिक वेदना होने से, गड्ढे में गिरना श्रादि वाह्य आघात लगने से, सर्प आदि के काट लेने ले अथवा स्पर्श करते ही शरीर में विष फैला देने वाली किसी भी वस्तु के स्पर्श करने से तथा सांस बंद होने से अकालमृत्यु हो जाती है। सोपक्रम आयु वाले ही अकालमृत्यु से मरते हैं । अकालमृत्यु व्यवहारनय की अपेक्षा से समझना चाहिए। _ज्ञानावरण आदि समस्त प्रकृतियों का, आयुकर्म की भांति शुभाशुभ परिणामों के अनुसार अपवर्तनाकरण के द्वारा स्थिति आदि के खंडन से उपक्रम होता है। वह उपक्रम प्रायः उन कर्मों का होता है जिनका निकाचना करण के द्वारा निकाचित रूप से (प्रगाढ़ ) बंध नहीं होता है। कभी-कभी तीव्रतर तपश्चर्या का अनुष्ठान करने से निकाचित कम का भी उपक्रम हो जाता है । कर्मों का यदि उपक्रम न हो तो कभी कोई जीव मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि तद्भव मोक्षगामी जीव जव चतुर्थ
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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