SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ अध्याय [ १७३ ] कलहं अब्भक्खाणं, पेसुन्नरइ-अरइसमाउत्तं । परपरिवायं माया-मोसं मिच्छत्तसल्लं च ॥ १६ ॥ छाया:-माणातिपातमलीक, चौर्य मैथुनं द्रव्यमूर्छाम् । . क्रोधं:मानं मायां, लोभं प्रेम तथा द्वेषम् ॥ १६ ॥ कलहमभ्याख्यानं, पैशून्यं रत्यरती सम्यगुक्तम् । परपरिवादं माया-मृपां मिथ्यात्वशल्यम् च ॥ १६ ॥ शब्दार्थः--प्राणातिपात, असत्य, चौर्य, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, मैथुन्य, रति-अरति, परपरिवाद, मायामृषा, और मिथ्यात्वशल्य को तीर्थंकरों ने सम्यक प्रकार से पाप रूप प्रतिपादन किया है। भाष्यः-आत्मशुद्धि के उपायों का अनुष्ठान करने के साथ-साथ ही आत्मा को अशुद्ध वनाने वाले पापों का परिहार करना भी अनिवार्य है । ऐसा किये बिना श्रात्म-शुद्धि नहीं हो सकती । आत्मिक मलीनता के जनक पापों का त्याग भी-आत्मशुद्धि का हेतु हैं। इसी कारण यहां पापों का उल्लेख करके उनके त्याग की आवश्यकता प्रदर्शित की गई है। यो तो अनन्त जीवों की पाप रूप क्रियाएँ भी अनन्त हैं, उनका शब्दों द्वारा कथन और उल्लेख नहीं हो सकता किन्तु उन तमाम क्रियाओं का वर्गीकरण करने पर अठारह वर्ग होते हैं। इन्हीं बों को शास्त्र में अठारह पापस्थानक कहते हैं। प्रकृत गाथाओं में इन्ही अटारह पापस्थानों का निर्देश किया गया है। उनका स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार हैं--(१) प्राणातिपात-किसी भी प्राणी के इस प्राणों में से किसी प्राण का घात करना, प्राणी को वेदना पहुंचाना, किसी का दिल दुखाना अथवा अपने द्रव्य भावे प्राणों का घात करना प्राणातिपात या हिंसा है। . . (२ अलीक-मिथ्या भापण अरना अंर्थात् असत् वस्तु को सत् कहना, सत् को असत् कहना, दूसरे के चित्त को विपाद करने वाले वचन बोलना, हिंसा-जनक चचन प्रयोग करना, सावध भाषा का प्रयोग करना, संशयजनक तथा कर्कश-कठोर वाणी का उच्चारण करना, । (३) चौर्य-विना आज्ञा लिए किसी की वस्तु को ग्रहण करना। (४) मैथुन-स्त्री-पुरुष के परस्पर गुह्य व्यापार को मैथुन कहते हैं । ब्रह्मचर्य का पालन न करना। १५) परिसह-संसार के पदार्थों पर, संयम के उपकरणों पर तथा शारीर पर भी ममता भाव रखना परिग्रह कहलाता है । (६) क्रोध (७) मान (८) माया (६) लोभ (१०) प्रेम अर्थात् इष्ट पदार्थों पर अनुगग करना (११) उप-अनिष्ट पदार्थों से घृणा करना (१२) कलह करना (१३) यभ्याख्यान-किसी की गुप्त बात प्रकट करना (१४) पैशुन्य-चुगली खाना (१५) रति
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy