SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १५२ ] धर्म स्वरूप वर्णन र्शित करना भी प्राचार का ही एक अंग है । अतएव दोनों अर्थों में अन्तर नहीं है, यह सहज ही समझा जा सकता है । ज्ञाता धर्म कथा में कहा है- . .. 'विणयमूले धम्मे परणत्ते, से वि य विणये दुविहे परणत्ते, तंजहा-आगारविणए य अणगार विणए य । तत्थ णं जे से श्रागार विणए से णं पंच अणुव्वयाई, सत्तसिक्खावयाई, एक्कारस उवासग.पडिमाओ..। तत्थ णं. जे से अणगार विणए स णं पंच महत्वयाइं ... । दुविहेणं विणयमूलेणं धम्मेणं अनुपुत्वेणं अट्ठसम्मपगडीओ खवेत्ता लोयग्गपयट्ठाणे भवन्ति ।' . - अर्थात् धर्म विनयमूलक कहा गया है। वह विनय भी दो प्रकार का है:श्रागार विनय और अनगार विनय । इसमें जो आगार विनय है सो पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत और ग्यारह श्रावक को प्रतिमाएँ हैं । अनगार विनय में पांच महाव्रत हैं। दो प्रकार के इस विनय-मूलक धर्म से क्रमशः कर्म की आठ प्रकृतियों का क्षय करके (जीव) लोक के अग्रभाग में स्थित हो जाता है। . इस प्रकार श्री उत्तराध्ययन और नायाधम्मकहा के उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि 'विनय' में समस्त प्राचार.का. अन्तर्भाव हो जाता है। नम्रता और श्रादर प्रदर्शन के अर्थ में 'विनय' शब्द. व्याख्याप्रज्ञप्ति में प्रयुक्त किया गया है। उसका उल्लेख आगे किया जायगा। सत्कार-विनय करने योग्य व्यक्ति का आदर करना; सन्मान-यथोचित सेवा करना, कृतिकर्म-वन्दना करन:योग्य को वन्दैना, अभ्युत्थान-गुरुंजन को देखते ही श्रासनं त्याग कर खड़ा हो जाना, अञ्जलिकरण-हाथ जोड़ना, आसनाभिग्रह-आसन देना, श्रासनानुप्रदान-गुरुजन के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर शासन ले जाना, गौरव योग्य व्यक्ति के सामने जाना, बैठे हुए की सेवा करना, उनके. गमन करने पर पीछे-पीछे चलना, इत्यादि विनय के रूप हैं। विनय के सात भेद हैं:-(१) ज्ञान विनय (२) दर्शन विनय (३) चारित्र विनय (४) मन विनय (५) वचन विनय (६) काय विनय और (७) लोकोपचार विनय । - ज्ञान के पांच भेद हैं अतएव विषय भेदं से ज्ञान विनय भी पांच प्रकार का है। मतिज्ञान की आराधना करना और श्रौत्पातिक-श्रादि वुद्धियों के धनी पुरुषों के प्रति विनम्रता का भाव रखना मतिज्ञान विनय है । इसी प्रकार श्रुतज्ञान और श्रुतज्ञानी के प्रति, अवधिज्ञान और अवधिज्ञानी के प्रति, मनः पर्याय ज्ञान और मनः पर्याय ज्ञानी के प्रति, तथा केवलज्ञान केवलज्ञानी के प्रति वहुमान.का. भाव अन्तःकरण में होना क्रमशः श्रुतज्ञान विनय आदि समझना चाहिए। . . . . . . . दर्शन विनय दो प्रकार है-(१).शुश्रुपा विनय और (२) अनाशातना विनयः ।। शुद्ध सम्यग्दृष्टि के आने पर सत्कार, सन्मान, कृतिकर्म श्रादि पूर्वोक्त प्रकारसे उसकी यथोचित. सेवा-भक्ति करना.शुश्रूषा विनय है । अनाशातना विनय के पैंतालीस भेद.. हैं। वे इस प्रकार हैं:- ..... .. ... ... ... ... . . . . . . .
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy