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________________ [ १५० } धर्म स्वरूप वर्णन लाभ के लिए नहीं करना चाहिए । धर्म से यदि आध्यात्मिक लाभ होता है तो सूत्रकार ने उसे क्यों नहीं प्रकट किया ? . . . .... ......... :: इस शंका का समाधान यह है कि सूत्रकार संक्षेप में ही अपने भाव प्रकट करते . हैं। उनके शब्द थोड़े होते हैं पर उन शब्दों का भाव बहुत विस्तृत और गहन होता है। यहां पर धर्मात्मा को देवों द्वारा नमस्कारणीय कहा गया है । इसका प्राशय यह हुआ कि धर्मात्मा महापुरुष देवों का भी देव-देवाधिदेव-बन जाता है. । देवाधिदेव वही हो सकता है जिसका आध्यात्मिक विकास, चरम सीमा पर पहुंच चुका हो। इससे स्पष्ट हो गया कि जिसका मन सदा धर्म में ही संलग्न रहता है उसे न केवल जगत् नमस्कार करता है वरन् वह मुक्ति भी प्राप्त करता है और मुक्ति ही प्रात्मा के . लिए परम कल्याण रूप है। .. 'जस्स धम्मे सया मणो' यहां सया (सदा ) शब्द भी विशेष अभिप्राय का सूचक है। 'सदा' शब्द से यह अर्थ प्रतीत होता है कि धर्म जीवन के प्रतिक्षण में श्राराधना के योग्य है । धर्मस्थानक में ही धर्मानुकूल वृत्ति बनाने वाले और धर्मस्थानक से बाहर निकल कर, अन्य सांसारिक कार्यों में धर्म की सवथा उपेक्षा करने वाले पुरुष धर्म का यथावत् आचरण नहीं करते । जिसका अन्तःकरणं धर्म में डूब जाता है उसका प्रत्येक जीवन-व्यवहार धर्म से समन्वित ही होता है। धर्मस्थान और मकान या दुकान में उसका व्यवहार परस्पर विरोधी नहीं होना चाहिए । धर्मात्मा पुरुष आजीविका उपार्जन करता है फिर भी धर्म से निरपेक्ष होकर नहीं। वह उठता है, वैठता है, वार्तालाप करता है, पर इन सब क्रियाओं में धर्म की अवहेलना नहीं करता । तात्पर्य यह है कि सच्चे धर्मात्मा का प्रत्येक व्यवहार, अपनी पदमर्यादा के अनुसार धर्ममय ही होता है। जिसके व्यवहार में धर्म की अवहेलना होती. है.वह सच्चा धर्मात्मा नहीं है। यही श्राशय व्यक्त करने के लिए सूत्रकार ने 'सया' शब्द का प्रयोग किया है । अतएव धर्म के प्राचरण द्वारा जो आत्मिक विकास या श्रात्मकल्याण चाहते हैं उन्हें अपने प्रत्येक व्यवहार में, प्रतिक्षण, धर्म को सन्मुख रखना चाहिए। ऐसा करने से ही धर्म की सच्ची आराधना होती है । . .. . 'मणो' पद भी यहां एक विशिष्ट श्राशय को सूचित करता है। शरीर के द्वारा की जाने वाली वंदना-नमस्कार या अन्य कोई भी क्रिया तभी धर्म रूप हो सकती है जब मन उसके साथ होता है। जिलद्रव्य क्रिया के साथ मन का संबंध नहीं होता अर्थात् विना मन के लोक-दिखावे के लिए जो शारीरिक क्रिया की जाती है वह निष्कल है। अतएव धर्म की आराधना करने वाले पुरुषों का यह परम कर्तव्य है कि उनकी समस्त धार्मिक क्रियाएँ हृदयस्पर्शी हो-मात्र-शरीर-स्पर्शी न हो, इस बात का ध्यान रक्खें । मन की क्रिया ही मुख्य रूप से बंध और मोक्ष का कारण होती है। 'मन एव मनुष्याणां कारणं वन्धमोक्षयोः। अतएव मन को धर्माचरण के अनुकूल. बनाना ही मुख्य रूप से धर्म की साधना है । इस अभिप्राय को प्रकट करने के लिए, सूत्रकार ने 'मणो' पद का प्रयोग किया है।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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