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________________ - - तृतीय अध्याय [ १४६ ] :तात्पर्य यह है कि मन, वचन और काय के अधीन न होना बल्कि मन, वचन, काय को अपने अर्धान बना लेना संयम कहलाता है। विषय-भेद से संयम के सत्तरह भेद होते हैं । वे इस प्रकार हैं:-(१) पृथ्वीकाय संयम (२, अपूकाय संयम (३) तेजस्काय संयम (१) वायुकाय संयम (५) वनस्पतिकाय संयम ६) द्वीन्द्रिय संयम(७)त्रीन्द्रियसंयम (E) चतुरिन्द्रिय संयम (8) पञ्चेन्द्रिय संयम (१०) प्रेक्ष्य संयम (११) उपेक्ष्य संयम (१२) अपहृत्यसंयम. (१३) प्रमज्य संयम (१४) कायसंयम (१५) वाक्संयम (१६) मनःसंयम और (१७) उपकरणसंयम, पृथ्वीकाय की घात का मन से विचार न करना, घात-जनक वचन न बोलना और घात करने वाली शारीरिक चेष्टी न करना अर्थात् पृथ्वीकाय की विराधना से चचना पृथ्वीकाय संयम है। इसी प्रकार आगे भी पंचेन्द्रिय संयम पर्यन्त समझना चाहिए । श्रांखों से दिखाई देने योग्य पदार्थों को देखकर ही रखना उठाना प्रेक्ष्य संयम कहलाता है। गुप्तियों के पालन करने में प्रवृत्त मुनियों द्वारा राग-द्वेष का त्याग करना-साम्यभाव होना उपेक्ष्य संयम कहलाता है। निरवद्य आहार ग्रहण करना, निदोष स्थान ग्रहण करना आदि बाह्य साधनों का ग्रहण अपहृत्यसंयम कहलाता है। किसी वस्तु को पूंछकर लेना बिना पूंछे न लेना प्रम्ज्यसंयम कहलाता है। मन, वचन और काय को सावध प्रवृत्ति से बचाना मनःसंयम, बचनसंयम और काय संयम है.। संयम. में सहायक उपकरणों का यतनापूर्वक उपयोग करना उपकरण संयम कहलाता है। . . संयम की इस व्याख्या से स्पष्ट हो जाता है कि संयम अहिंसा का ही यतनाचार रूप-साधन है इसीलिए सूत्रकार ने अहिंसा के बाद संयम को स्थान दिया है। धर्म का तीसरा रूप तप है । संयम के अनन्तर तप का ग्रहण करने से यह सूचित होता है कि तपं संयम का प्रधान सहायक है । तप की सहायता से ही संयंत पुरुष संयम का आचरण करने में समर्थ होते हैं । तप के विशद विवेचन सूत्रकार स्वयं श्राग करेंगे, अतएव यहां उसका विस्तार नहीं किया जाता। इस प्रकार यह सिद्ध हुश्रा कि अहिंसा परम मंगलमय होने से धर्म है और उसका साधन संयम और संयम का साधन तप भी मंगल के हेतु होने के कारणं मंगल रूप हैं। धर्म के फल को प्रकट करते हुए सूत्रकार कहते हैं-'जिसका मन सदा धर्म में लगा रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। यहां भवि (अपि-भी) अव्यय यह सूचित करता है कि धर्मात्मा पुरुष के चरणों में राजा-महाराजा और चक्रवर्ती तो प्रणाम करते ही हैं परलोक में माननीय और पूजनीय समझेजाने वाले देव भी उसे पूजते है-उसे नमस्कार करते हैं। - यहां यह आशंका की जा सकती है कि यदि देवता, इन्द्र और चक्रवत्ती धर्मास्मा के चरणों में नमस्कार करते हैं, तो भी इससे धर्मात्मा पुरुष की आत्मा का क्या कल्याण हुश्रा ? पूजा-प्रतिष्ठा तो इस लोक संबंधी ऐश्वर्य है-सांसारिक लाभ है। धर्म के आचरण से यदि सांसारिक लाभ होता है तो धर्म का आचरण नाध्यात्मिक
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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