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________________ द्वितीय अध्याय [ ११६ ] जिस शरीर का बड़े अनुराग से पालन-पोषण किया जाता है, जिसे सिंगारने के लिए नाना प्रकार की चेष्टा की जाती है, वह शरीर भी परलोक में साथ नहीं देता है। जव इतना घनिष्ट संबंध वाला औदारिक शरीर भी साथ नहीं देता तो अपेक्षाकृत भिन्न बन्धु-बान्धव, पुत्र-कलत्र श्रादि परलोक में किस प्रकार साथ दे सकते हैं ? . अतएव ज्ञानीजन को कोई भी सावध व्यापार करने से पूर्व यह सोच लेना चाहिए कि इस सावध व्यापार का फल मुझे अकेले को ही भोगना पड़ेगा। इस प्रकार का विचार करने से सावध क्रिया के प्रति अरुचि और विरक्ति का भाव उत्पन्न होता है और जितने अंशों में विरक्ति बढ़ती है उतने ही अंशों में पापमय प्रवृत्ति कम होती जाती है और भात्मा कल्याण मार्ग की ओर अग्रसर होता चला .. जाता है। कई लोक मृत पितर आदि की सुगति के लिए श्राद्ध तर्पण श्रादि करते हैं। वे.यह समझते हैं कि उनके निमित्त से किया हुश्रा श्राद्ध उन्हें संतुष्ट कर देगा और उस पुण्य के भागी भी वही होंगे। किन्तु ऐसा होना संभव नहीं है। एक व्यक्ति के द्वारा किया हुश्रा धर्म या अर्धम, दूसरे व्यक्ति को फल प्रदान नहीं कर सकता। अगर ऐसा होने लगे तो पाप-पुण्य की व्यवस्था में श्रामूल-मूनं अव्यवस्था उत्पन्न हो जायगी। मूलः-न तस्स दुक्खं विभयंति नाइयो, न मित्तवग्गां न सुया न बंधवा । इक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं, कतारमेन अणुजाइ कम्मं ॥ २४ ॥ - छाया-न तस्य दुःखं विभजन्ते ज्ञातयः न मित्रवर्गा न सुता न बान्धवाः । . एकः स्वयं प्रत्यनुभवति दुःखं, कंतरमेवानुयाति कर्म ॥२५॥ शब्दार्थः-उस पाप कर्म करने वाले के दुःख को ज्ञाति-जन नहीं बाँट सकते और न मित्र-मंडली, पुत्र-पौत्र और भाई-बंद ही बाँट सकते हैं। पाप-कर्म करने वाला स्वयं ही अकेला दुःख भोगता है; क्योंकि कर्म, कर्ता का ही अनुसरण करता है। भाष्यः-पहले यह बताया था कि दूसरों के लिए अथवा अपने तथा दूसरे के लिए किये हुए कर्म का फल अकेले कर्ता को ही भोगना पड़ता है। यहाँ उसी अभिप्राय को सामान्य रूप से कथन करके पुष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि जाति के लोग, मित्र लोग, पुत्र-पौत्र श्रादि कुटुम्बीजन तथा अन्य भाई-बंद पाप का श्राचरण . करने वाले के दुःखों का चटवारा करने में समर्थ नहीं है। कर्म कर्ता स्वयं ही पाए कर्म जन्म दुःख को भोगता है क्योंकि कर्म अपने कर्ता का ही पीछा करते हैं। कहा
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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