SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १८ ] कर्म निरूपण छाया:- संसारमापन्नः परस्यार्थाय साधारणं यच्च करोति कर्म । कर्मणस्ते तस्य तु वेदकाले, न बान्धवा बान्धवत्वमुपयान्ति ॥ २३ ॥ शब्दार्थः - संसार-सकर्म अवस्था को प्राप्त हुआ आत्मा दूसरों के लिए और साधारण-अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी जो कर्म करता है, उस कर्म को भोगते समय वे दूसरे - कौटुम्बिकजन - भाईचारा नहीं करते हैं-हिस्सा नहीं बँटाते हैं ।। २३ ॥ भाष्यः - पहले यह बतलाया गया था कि कर्म का फल अमोघ है- अनिवार्य है । किन्तु वह फल किसे भोगना पड़ता है ? जिसे उद्देश्य करके कर्म किया जाता वह फल भोगता है या कर्म करने वाला ही अपने कर्म का फल भोगता है ? इस शंका का समाधान करने के लिए सूत्रकार ने कहा है कि संसारी जीव चाहे दूसरे के ही लिए कोई कार्य करे, चाहे अपने और दूसरे के लिए कोई कार्य करे, उसका फल कर्त्ता अकेले को ही भुगतना पड़ता है । इस कथन से यह स्वयं सिद्ध हो गया कि अपने लिए जो कर्म किया जाता है उसका भी फल कर्त्ता को ही भोगना पड़ता है । तात्प यह कि प्रत्येक कार्य, चाहे वह किसी का भी उद्देश्य करके क्यों न किया जाय, कर्त्ता को ही फल प्रदान करता है । क्रिया का फल कर्ता को ही न होकर यदि दूसरों को होने लगता तो संसार में चढ़ी गढ़बड़ मच जाती । एक व्यक्ति- जो कर्म का कर्त्ता है-वह तो अपने किये हुए का फल भोगने से बच जाता और जिसने वह कर्म किया नहीं है उसे उस कर्म का फल भोगना पड़ता । इससे कृतनाश और अकृतागम नामक दो दोषों की प्राप्ति होती है । इन दोनों दोपों से बचने के लिए यही स्वीकार करना चाहिए कि जो करता है वहीं भरता है । सूत्रकार संसार की विषमता को प्रदर्शित करते हुए कहते हैं कि एक व्यक्ति अठारह पापस्थानक सेवन करके जो धन आदि प्राप्त करता है या भोगोपभोग की श्रन्य सामग्री जुटाता है उसे भोगने के लिए बन्धु बान्धव सम्मिलित हो जाते हैं किन्तु जब उन पापों के फल को भोगने का अवसर श्राता है तब उनमें से कोई भी हिस्सा नहीं बँटाता है । कर्म का फल उस अकेले कर्त्ता को ही भोगना पड़ता कहा भी है: धन्यैस्तेनार्जितं वित्तं भूयः सम्भूय भुज्यते । सत्वको नरकफोडे, क्लिश्यते निजकर्मभिः ॥ अर्थात्ः- महा प्रारंभ और परिग्रह के द्वारा उपार्जित धन को भाई-बंध गैरह इकट्ठे होकर वार-चार भोगते हैं । किन्तु नरक में अकेला धनोपार्जन करने वाला ही अपने किये हुए कर्मों के कारण क्लेश पाता है । क्लेश भोगने के लिए कोई पास भी नहीं फटकता । दुःख रूपी भीषण अग्नि से धधकते हुए इस संसार रूपी वन में कर्मों से परतंत्र हुआ जीव केला ही भ्रमण करता है। दूसरे संबंधियों को तो जान दीजिए,
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy