SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म निरुपण [८] मूल:- नानावरणं पंचविहं, सुयं ग्राभिणिवोहियं । हिना त्र तहयं, मणनाणं च केवलं ॥ ४॥ छाया:-ज्ञानावरणं पञ्चविधं श्रुतमाभितिवोधिकम् । * प्रवधिज्ञानञ्च तृतीयं मनोज्ञानञ्च केवलम् ॥ ४ ॥ शब्दार्थ:-- ज्ञानावरण कर्म पांच प्रकार का है - मतिज्ञानवरण, श्रुतज्ञानावरण, श्रबधिज्ञानावरण, मनःपर्यायज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण | भाष्यः-- - कर्म की आठ सूल प्रकृतियों का वर्णन करने के पश्चात् क्रम से उत्तर प्रकृतियों का निरूपण करने के लिए पहले ज्ञानावरण की पांच उत्तर प्रकृतियों का यहां निर्देश किया गया हैं । वे इस प्रकार हैं - मतिज्ञानावरण, अज्ञानावरण, अवधि - ज्ञानावरण, मनःपर्यायज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण । श्रुतज्ञान को श्रावरण करने वाला कर्म श्रुतज्ञानाचरण है । मतिज्ञान को श्रावरण करनेवाला कर्म मतिज्ञानावरण है श्रवधिज्ञान को रोकनेवाला कम अवधि- ज्ञानाचरण, मनःपर्याय ज्ञान की रुकावट करने वाला मनःपर्याय ज्ञानावरण है और जो केवल ज्ञान उत्पन्न नहीं होने देता वह केवल ज्ञानावरण कर्म कहलाता है । पांच ज्ञानों का स्पष्ट स्वरूप विवेचन ज्ञान-प्रकरण से किया जायेगा । ज्ञान की उत्पत्ति के क्रम की अपेक्षा मतिज्ञान प्रथम और श्रुतज्ञान दूसरा है; क्योंकि मतिज्ञान के पञ्चात् ही श्रतज्ञान उत्पन्न होता है परन्तु यहां सूत्रकार ने श्रुतज्ञानाचरण का सर्व प्रथम निर्देश किया है । इसका कारण यह है कि श्रुत के द्वारा ही मति यादि शेष ज्ञानों का स्वरूप जाना जाता है श्रतएव श्रुत ज्ञान मुख्य है । ज्ञानावरण कर्म के बंध के निम्न लिखित हेतु हैं - (१) ज्ञान और ज्ञानवान् की निन्दा करना । (२ जिस ज्ञानी से ज्ञान की प्राप्ति हुई हो उसका नाम छिपाकर स्वयं बुद्ध बनने का प्रयत्न करना । (३) ज्ञान की श्राराधन में विघ्न डालना -जैसे ग्रंथ छिपा देना शास्त्र का जब कोई पटन करता हो तो कोलाहल करना यादि । (४) ज्ञानी जन पर द्वेष का भाव रखना । जैसे -धजी ! वह ज्ञानी कहलाता है पर है बड़ा ढोंगी वास्तव में वह कुछ भी नहीं जानता, इत्यादि । (५) ज्ञान और ज्ञानी की झालातना फरना । जैसे--पढ़ने-लिखने से कुछ भी लाभ नहीं है, ज्ञान नास्तिक बना देता है और ज्ञानी जन संसार को धोका देते हैं, थवा ज्ञानी का सामना होने पर उससे दुर्वचन कहना, उसका यथोचित विनय न करना । (६) ज्ञानी के साथ विसंवाद फरना - वृथा और उद्दंडता पूर्ण वकवाद करना । ज्ञानावरण कर्म इन सब दुष्कृत्यों को करने से बंधता है । प्रतएव जो भव्य जीव ज्ञानावरण कर्म के बंधन से बचकर ज्ञानी बनना चाहते हैं, उन्हें इन कारणों का परित्याग करके ज्ञान और ज्ञानी के प्रति श्रद्धा-भक्ति का भाव रखना चाहिए । उनका पथच आदर करना चाहिए | जानकी आराधना में सहायक बनना चाहिए ।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy