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________________ । * ॐ नमः सिद्धेभ्यः निन्छ चन्द ॥ द्वितीय अध्याय ।।. .. कर्म निरूपण मूल:-अकस्माई वोच्छामि, प्राणुपुर्दिक जहक्कम । . जेहिं बद्धो अयं जीवो, संसारे परियतइ ॥ १ ॥ छाया:-अटफर्माणि वक्ष्यामि, भानुपूर्ध्या यथाक्रमम् । मजोऽयं जीवः, संसारे परिवर्तते ॥ १ ॥ शब्दार्थ:-श्रमण भगवान महावीर कहते हैं-हे गौतम ! पाठ कर्मों को, श्रानु। पूर्वी से क्रमवार कहता हूँ। जिन कर्मों से बँधा हुआ यह जीव संसार में नाना रूप धारण करता है। आध्यः-प्रथम अध्ययन में षट् द्रव्यों का निरूपण करते हुए, आत्म-निरूपए के प्रकरण में कर्म-बंध का उल्लेख किया गया है और 'अप्पा कत्ता विकत्ता य' यहाँ श्रात्मा को कमरों का कर्ता प्रतिपादन किया है। अतएव यह बताना मी नावश्यक है कि फर्म क्या हैं ? यही बताने के लिए कर्म-निरूपण नामक द्वितीय अध्ययन प्रारम्भ किया जाता है। संस्कृत भाषा में कर्म शब्द की अनेक व्युत्पत्तियां की गई है । जैसे-'जीवं परतन्त्रीकुर्वन्ति-इति कर्माणि' अर्थात् जीव को जो परतन्त्र करते हैं वे कर्म कहलाते हैं। अथवा 'जीचेन मिथ्यादर्शनादि परिणामः क्रियन्ते-इति कर्माणि ।' अर्थात् मिथ्या दर्शन आदि रूप परिणामों से युक्त होकर जीव के द्वारा जो उपार्जन किये जाते हैं उन्हें कर्म कहते हैं। प्राकृत में भी इसी प्रकार की व्युत्पत्ति देखी जाती है-'कीरइ जिएक देउहिजेणलो भराए कस्म' अर्थात् मिथ्यात्व अनिरति श्रादि देतुओं से जीव के द्वारा जो किया जाता है-कार्मारा वर्गणा के पुद्गल श्रात्मा के साथ एकमेक किये जाते हैंवही कर्म है। - यों तो और भी कई व्युत्पत्तियां कर्म शब्द की हो सकती हैं, पर उनले किसी . मौलिक बात प्रतीत नहीं होती। ऊपर जो दो प्रकार की व्युत्पत्ति का दिग्दर्शन कराया गया है, उससे दो बातें झलकती हैं:-- (१) प्रथम व्युत्पत्ति से यह प्रतीत होता है कि कर्मों में जीव को परतन्त्र तनाने का स्वभाव है।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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